Thursday, August 10, 2017

उपहार

हम बहनों के लिए मेरे भैया
आता है एक दिन साल में
आज के दिन मैं जहाँ भी रहूँ
चले आना वहाँ हर हाल में
हम बहनों के लिए मेरे भैया
आता है एक दिन साल में

कितने दिन और कितनी रैनें
इस आँगन में रहना है मैंने
परदेसी होती हैं बहनें
बाबुल जाने भेज दे मेरी
डोली कब ससुराल में
चले आना वहाँ हर हाल में.........हर साल रक्षा बंधन के दिन रश्मि रमन को यह गाना जरूर सुनाती थी
रमन उसको छेड़ता था- हर साल गाना सुना देती है पर ससुराल नहीं जाती है.......ससुराल जाएगी तब तो आऊँगा
आखिरकार वह दिन भी आया जब रश्मि ससुराल चली गयी......उस साल रक्षा बंधन की प्रतीक्षा दोनों भाई-बहन बेसब्री से कर रहे थे
रमन राखी बंधवाने जाने लगा तब माँ ने एक साड़ी मिठाई का डिब्बा और 500 रुपए उसको दिए.…..रश्मि को देने के लिए
बहन से मिलने की खुशी और अपना वादा निभाने के उत्साह के साथ रश्मि के घर पहुँचा
बहन ने भी खुशी-खुशी राखी बाँधी मिठाई खिलाया और नेग लिया
सब बहुत खुश थे पर थोड़ी देर में ही रमन को माहौल कुछ बदला बदला से महसूस होने लगा......कारण कुछ समझ मे नहीं आया
थोड़ी देर बाद वो वापस अपने घर लौट गया
दिपावली पर जब रश्मि मायके आई तब उसने बातों ही बातों में बताया कि रक्षा बन्धन में उसकी जिठानी के भाई ने जिठानी को सोने की अँगूठी दी थी
इसलिए उसकी सास और ननदें उसको ताना दे रहीं थीं
रश्मि की जिठानी के भाई  का पेट्रोल पम्प था और पिता भी सरकारी नौकरी में थे
जबकि रश्मि के पिता किसान थे और रमन अभी पढ़ाई कर रहा था.....दोनों परिवारों में आर्थिक असमानता थी
न जाने क्यों समाज में व्यक्ति का सम्मान उसकी आर्थिक स्थिति से होता है.....व्यवहार और गुण धन-संपत्ति के सामने बौने साबित होते हैं ।
रश्मि के ससुराल वाले भी इसी मानसिकता के थे इसलिए जिठानी के मायके वालों से तुलना करके रश्मि के मायके वालों का मज़ाक उड़ाते रहते थे
मायका चाहे बुरा ही क्यों न ही पर उसकी शिकायत सुनना किसी भी औरत को सहन नहीं होता है......मुखर होती है तो बोल कर विरोध कर लेती है और अंतर्मुखी होती है तो अंदर ही अंदर घुट कर रह जाती है ।
रमन को रक्षा बंधन वाले दिन के बदले हुए माहौल का कारण अब समझ में आ गया था
रश्मि के संवेदनशील स्वभाव को भी वो जानता था इसलिए उसकी मनःस्थिति को समझ गया
अगले वर्ष रक्षा बंधन के दो दिन पहले ही रश्मि ने फोन करके रमन को आने से मना कर दिया.....बहाना बनाया कि वो लोग कहीं बाहर जाने वाले हैं
माँ-पिताजी ने इस बात को सहजता से लिया लेकिन रमन को विश्वास नहीं हुआ
रश्मि मन ही मन दुखी भी थी और प्रसन्न भी......भाई को राखी नहीं बांध पाने का दुख तो था
लेकिन उपहार का मज़ाक उड़ा कर मायके के बारे में भला-बुरा सुनने से मुक्ति मिलने से प्रसन्न भी थी
रमन ने दोस्तों के साथ घूमने जाने का घर में बहाना बनाया और बिना किसी को बताए रश्मि के घर चला गया
रमन को देख रश्मि की आँखे भर आईं क्योंकि आज खुद को भाई से दूर रख पाना उसके लिए भी मुश्किल हो रहा था
रमन ने माहौल को हल्का-फुल्का करते हुए रश्मि को कहा-अब राखी भी बाँधेगी या बस रोती ही रहेगी.......मुझे भूख भी लगी है जल्दी से राखी बांध और खाना खिला  नहीं तो उपहार भी नहीं दूँगा
होने वाले मान-अपमान को भूल कर रश्मि भी त्योहार की खुशी में खो गयी.....रमन को राखी बांधने की तैयारी करने लगी
राखी बंधवाने के बाद रमन ने रश्मि को जब नेग दिया तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.....
महँगी साड़ी के साथ सोने के टॉप्स रमन के उसके हाथ में पकड़ा कर पैर छुए तो रश्मि भावातिरेक हो कर कुछ बोल ही नहीं पाई
उसकी मनोदशा को समझते हुए रमन ने धीरे से बोला - परेशान मत हो,मैंने अपनी पॉकिट मनी के पैसे बचाए और ट्यूशन करके पैसे इकठ्ठे किए थे
बीस साल तक जो वादा किया था उसको पूरा करने में उपहार को राह का रोड़ा कभी नहीं बनने दूँगा
और अपनी बहन को उसके ससुराल में कभी शर्मिंदा भी नहीं होने दूँगा
यह बोलता हुआ रमन अचानक से बहुत बड़ा लगने लगा रश्मि को
माता-पिता बच्चों को जितना नहीं समझते हैं उससे ज्यादा भाई-बहन एक दूसरे के मन के भाव को जानते समझते हैं
अनकही को जान कर बहन की खुशियों का ख्याल रखना भाई को खूब आता है
क्योंकि बहन की शादी के समय भाई को उसकी खुशियों की ही चिंता ज्यादा रहती है

Thursday, August 3, 2017

रक्षा बन्धन

सड़क पर चलते-चलते मयंक की आँखें बार-बार गीली हो जा रही है.....चुपके से आँसू पोंछ कर चोर नजरों से इधर-उधर देख लेता है......... कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा
पर अजनबियों के शहर में किसे भला फुर्सत थी उसे देखने की
पूरे वर्ष में यही एक दिन होता है जब उसको अकेला होना कष्ट देता था......जब दूसरों की कलाई राखी से सजी हुई दिखती तब अपनी सूनी कलाई बहुत दुख देती थी
हर बार रिश्ते की या मोहल्ले की ही कोई न कोई बहन राखी बाँध दिया करती थी लेकिन आज तो कोई नहीं थी........जो उसको राखी बाँधती
मयंक अपने माता-पिता की एकलौती संतान है.....बहुत लाड़-प्यार में पला-बढ़ा.....उसकी हर इच्छा को पूरा किया जाता था
जब उसने जिस चीज की फरमाइश की वो पूरी हो जाती थी.....माँ और पिताजी दोनों नौकरीपेशा थे इसलिए पैसों की तकलीफ़ नहीं थी
इसके उलट उसके मामा के तीन बच्चे थे और कमाने वाले सिर्फ मामा......वहाँ हर चीज तीनों बच्चों में बाँटी जाती थी
जब मयंक वहाँ जाता था था तब मामी चॉकलेट बिस्किट या मिठाई के चार हिस्से करके देती थी.....इसकी तो आदत अकेले ही पूरा खाने की थी इसलिए वो एक छोटा टुकड़ा लेने से इनकार कर देता था....बाद में मामी को जब पता चला तब वो एक पूरा चॉकलेट उसको देतीं और दूसरे में से तीन हिस्से करके अपने बच्चों को देतीं थीं
मयंक सोचता था,अच्छा है कि मेरा कोई भाई-बहन नहीं है वरना मुझे भी शेयर करना पड़ता
सिर्फ रक्षा बंधन वाले दिन उसको बहन की कमी महसूस होती थी......जब अपने दोस्तों को सज-धज कर राखी बंधवाने की तैयारी करते देखता तब उदास हो जाता था
उसको उदास देख कर माँ आसपास की किसी लड़की को बुला कर राखी बंधवा देती थीं
बड़ा होने लगा तब समझने लगा कि इस राखी से कलाई का सूनापन तो दूर हो जाता है पर मन का सूनापन दूर नहीं होता है
जिस प्रेम से कोई बहन अपने भाई के लिए सैकड़ों राखियों में से चुन कर एक राखी अपने भाई के लिए खरीदती है......भाई के पसँद की मिठाई लाती है.....रक्षा बन्धन की प्रतीक्षा करती है......राखी बांधने के बाद उपहार के लिए लड़ती है....वैसा भाव माँ के द्वारा बुला कर बँधवाई गयी राखी में नहीं होता है ।
ये तो महज खानापूर्ति होता है
ये सब सिर्फ एक दिन की बात होती थी इसलिए रक्षा बन्धन के दूसरे दिन से वो भी सामान्य हो जाता था
इस साल नौकरी के कारण घर से दूर था.....यहाँ माँ भी नहीं थीं जो उसकी उदासी दूर करने के लिए किसी से राखी बंधवा देतीं
मयंक सोच रहा था काश! एक बहन तो होती जो घर से दूर रहने पर भी राखी भेजती,फोन करती और उपहार के लिए लड़ाई करती...ठीक वैसे ही जैसे उसके मामा की बेटी अपने भाइयों से लड़ती है
हाँ ऐसा सम्भव तो था यदि माँ-पिताजी ने बेटे की चाहत में उसके जन्म के पहले दो कन्याओं की भ्रूण-हत्या नहीं की होती तो......दूसरी तरफ उसके मामा के यहाँ बेटी की चाहत में दूसरा बेटे का जन्म हो गया तब उन्होंने एक लड़की गोद ले ली
उनके बच्चे भाई और बहन दोनों का प्यार पा रहे हैं.....जीवन के सभी रंगों का आंनद ले रहे हैं
मयंक को भौतिक सुख तो बहुत मिला लेकिन भावनात्मक सुख की कमी हमेशा रही और पूरे जीवन रहेगी
माता-पिता के जाने के बाद उसके ऊपर कोई जिम्मेदारी या आर्थिक भार तो नहीं रहेगा पर भावनात्मक संबल देने वाला भी कोई नहीं होगा
भविष्य की भयावह कल्पना ने मन को झकझोर दिया.....परिणामस्वरूप उसने निश्चय कर लिया कि जो कमी उसके जीवन में है वो अपने बच्चों के जीवन में नहीं होने देगा
जब उसकी शादी होगी तब अपने बच्चे के साथ एक बच्चा गोद लेगा.....यदि पहले बेटी हुई तो एक लड़का गोद ले लेगा और लड़का हुआ तो एक लड़की गोद ले लेगा
घर मे बेटे और बेटी दोनों की किलकारियाँ गूँजेंगी.....भाई-बहन की नोकझोंक भी होगी....पिता के प्रति बेटी का लगाव और माँ का बेटे के लिए झुकाव भी होगा......जीवन के हर रस का स्वाद मिलेगा......ना रक्षा बंधन पर भाई की कलाई सूनी रहेगी न भाई दूज पर बहन सूनी आँखों से टिका की थाली को देखेगी

शगुन

रौनक ने ऑफिस से आते ही माँ के सामने दो लिफाफे रख दिए और खुशी से चहकते हुए कहा....खुशी दी और रिनी की राखी आ गई
माँ ने लिफाफा खोल कर बहुत गौर से दोनों राखियों को देखा
राखी लिफाफे में रखती हुई बोलीं....खुशी की राखी तो सस्ती सी है.....रिनी की महँगी वाली है
तू ऐसा करना खुशी को पाँच सौ एक रुपये भेज देना और रिनी को इक्यावन सौ एक
बड़े घर में बेटी ब्याही है तो उनके हैसियत के हिसाब से  ही व्यवहार भी करना पड़ेगा
खुशी के लिए तो पाँच सौ भी बहुत है.......माँ अपनी ही धुन में बोलती जा रहीं थीं
उनकी बात सुन रौनक हैसियत और रिश्ते के समीकरण को सुलझाने में उलझ गया
बड़ी बहन की शादी एक साधारण परिवार में हुई थी क्योंकि उनकी शादी के समय रौनक के पिताजी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी
और जीजाजी एक छोटी सी कंपनी में क्लर्क थे
छोटी बहन के ससुराल वाले जाने-माने व्यवसायी थे.....बहनोई एमबीए करके पारिवारिक व्यवसाय को संभाल रहे थे
शहर के पॉश एरिया में बँगला है......महँगी गाडियाँ और सभी आधुनिक सुख-सुविधाएं उनलोगों को उपलब्ध हैं
आर्थिक स्थिति भले ही आसमान हैं पर दोनों से रौनक का रिश्ता तो एक ही है
दोनों ही एक ही माता-पिता की संतानें हैं.......अमीर घर में ब्याही हो या गरीब घर में पर रौनक तो दोनों का ही भाई है
राखी भेजने में जैसा प्रेम और उत्साह खुशी दी के मन में रहा होगा वैसा ही रिनी के मन में भी होगा तो उपहार या शगुन में भेदभाव क्यों करना.....रौनक समझ नहीं पा रहा था
रिश्ते दिल से बनते हैं पर निभाने के लिए हैसियत देखी जाती है.......ऊँचा पद और मोटा बैंक बैलेंस प्यार एवं भावनाओं पर भारी पड़ता है
मन में उठे विचारों के झंझावात ने रौनक को आज एक नई राह दिखाई
उसने निश्चय किया खुशी दी और रिनी के शगुन में भेदभाव करेगा......माँ के कहे अनुसार रिनी को पाँच हजार एक का शगुन भेजेगा पर दीदी के लिए एक हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी लेगा
अब से हर वर्ष उनकी किसी ऐसी जिम्मेदारी का भार वह स्वयं लेगा जिसकी उनको आवश्यकता तो है पर उसको पूरा करने में असमर्थ हैं
रिनी सम्पन्न है उसको सहायता की आवश्यकता नहीं है पर दीदी को आवश्यकता है
उनदोनों ने तो राखी भेज कर अपना कर्तव्य पूरा किया अब बहन की रक्षा का कर्त्तव्य पूरा करने की बारी उसकी थी............शुरुआत स्वास्थ्य की रक्षा से करेगा

Wednesday, June 14, 2017

अधूरी कहानी

भूली बिसरी यादें राख की परत में दबी आग जैसी होती है
ऊपर से सब कुछ समाप्त हुआ दिखता है पर कुरेद दो तो जलता हुआ अंगारा हाथ जला देता है।
राकेश की शादी में श्रुति को देख कर एक पल के लिए विश्वास ही नहीं हुआ कि सामने दिखने वाली औरत श्रुति ही है
श्रुति ???
नहीं-नहीं.....वो यहाँ कैसे आ सकती है...मैंने खुद को समझाते हुए खुद से ही कहा और सर झटक कर आगे बढ़ गया
पर नज़रें बार-बार उसको ढूँढने लग रही थीं......
दोस्तों के साथ बात करते हुए भी दिमाग में श्रुति का ख्याल घूम ही रहा था
बाहर से तो दोस्तों के साथ हँसी-मज़ाक करने में व्यस्त था पर मन तर्क-वितर्क में लगा हुआ था
बार-बार पंद्रह वर्ष पहले के समय में लौट जा रहा था.......
श्रुति को अंतिम बार जब देखा था तब वो एक अल्हड़ लड़की थी
आज जिसको देखा था वो एक औरत थी
पर चेहरा-मोहरा और हाव-भाव श्रुति जैसा ही था......शायद श्रुति भी इस उम्र में ऐसी ही दिखती
मन में उधेड़बुन निरंतर चल रहा था
तभी सामने से वो आती हुई दिख गयी.....मैं गौर से उसको देखने लगा
इस बार उसके गोद में एक बच्चा भी था और वो जहाँ मैं खड़ा था उधर ही आ रही थी
उसको अपनी तरफ आता देख कर थोड़ा सा घबरा गया पर तभी सोचा कि मैंने तो कुछ न बोला है न किया है तो घबराना क्या
अभी सोच ही रहा था तब तक वो मेरे पास आ खड़ी हुई और अपने बच्चे को मुझे थमाते हुए बोली- थोड़ी देर रखो इसको ,मैं आती हूँ
आवाज़ सुनते ही कन्फर्म हो गया -श्रुति ही है
बिना मुझसे कुछ पूछे इतने अधिकार के साथ अपने बच्चे को पकड़ाने का साहस उसके सिवा और कोई कर भी नहीं सकता था
उम्र बढ़ गयी पर स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला था
वो तो बच्चे को पकड़ा कर जाने कहाँ
गुम हो गई
मैं बच्चे को गोद में लिए हुए सोचने लगा-किसी ने पूछ लिया कि बच्चा किसका है तो क्या जबाब दूँगा
तभी ख्याल आया कि बच्चा थोड़ा बड़ा रहता और पूछ लेता कि आप कौन हैं तो क्या बताता इसको
इसकी मम्मी तो शायद मामा हैं बोल देती या अभी भी कहीं बोल दे -मामा को नमस्ते करो
विचित्र धर्मसंकट में फंसा हुआ महसूस कर रहा था
श्रुति एक बार फिर से प्रकट हुई..…..इस बार उसके हाथ मे खाने की प्लेट थी
आते ही बोली- चलो उधर एक टेबल खाली है वहीं बैठ कर बेटे को खाना भी खिला देती हूँ और तुमसे बात भी कर लूँगी
मैं यंत्रवत उसके पीछे-पीछे चल पड़ा
समय की एक लंबी दीवार का भी हम दोनों पर कोई असर नहीं हुआ था
ऐसा लग रहा था जैसे समय का पहिया वहीं रुका हुआ है जहाँ पंद्रह वर्ष पहले था
आज भी वो बोल रही थी और मैं बिना प्रतिकार किए उसकी बातें मान रहा था
इसकी बातें मान कर कैसे-कैसे उल्टे-पुल्टे काम किए हैं
फरमाइशें भी इसकी अजीबोगरीब हुआ करती थीं......एक दिन जिद कर बैठी कि मेरे भैया को आँख मारना सिखा दो
मरता क्या न करता....बात तो माननी ही थी
बस एक शिकायत श्रुति को हमेशा रही.....जब भी किसी लड़की को मुझसे बात करते देखती तब उससे झगड़ा कर लेती......
उसके बाद उससे झगड़ा करने के लिए मेरे ऊपर दबाव बनाती जिस पर मैं इंकार कर देता
अकारण किसी लड़की से लड़ना मुझे पसँद नहीं था
इसके बाद दो-चार दिन नाराज़ रहती फिर खुद ही मान जाती थी
बेटे को खाना खिलाते हुए जो बातों का दौर शुरू हुआ वो हमारे खाने के बाद भी समाप्त नहीं हुआ
ऐसा लग रहा था जैसे मैं राकेश की शादी में नहीं श्रुति से मिलने ही यहाँ आया था
मुझे तो कोई अंदाज़ा ही नहीं था कि यहाँ श्रुति भी मिल सकती है
क्योंकि उसके पापा के शहर छोड़ने के बाद कोई कॉन्टेक्ट ही नहीं रहा ना ही मैंने उसके बारे में पता करने का प्रयास किया
शायद वो मेरे जैसी निर्मोही नहीं थी इसलिए मेरे बारे में सारी जानकारी रखती रही......इस शादी में मैं आनेवाला हूँ इसकी भी खबर उसको थी
इसलिए मुझसे मिलने के लिए ही खासकर वो भी यहाँ आई थी
इस मुलाकात से एक बात तो समझ में आ गयी कि प्यार कभी खत्म नहीं होता है
आकर्षण हर नए व्यक्ति या वस्तु की तरफ खिंचता है पुराने होने के साथ कम होते-होते खत्म भी हो जाता है
जीवन में न जाने कितने लोगों से जान-पहचान होती है दोस्ती होती है
लेकिन समय के साथ अधिकाँश का साथ छूट जाता है बस कुछ ही होते हैं जिनका साथ कभी नहीं छूटता है
ये वही लोग होते हैं जिनसे हमारा दिल मिल जाता है और ये रिश्ते अटूट होते हैं जिसपर समय और दूरी का कोई प्रभाव नहीं होता है
उन्नीस-बीस वर्ष की उम्र में हुआ प्यार.......प्यार कम विपरीत लिंग आकर्षण ज्यादा होता है
श्रुति और मेरा प्यार भी कुछ ऐसा ही था......मेरे लिए तो सिर्फ मस्ती थी लेकिन इस अल्हड़ ने बहुत गंभीरता से ले लिया था
मेरा केयर करने,छोटी-बड़ी सभी इच्छाओं को पूरा करने  के लिए कुछ भी कर जाती थी
आज बात करते हुए जब उसने मेरे शर्ट की तारीफ की तब उसके दिए हुए शर्ट की बरबस ही याद आ गयी
किसी काम से हमदोनों मार्केट गए थे.....वहाँ एक शोरूम में पीटर इंग्लैंड की शर्ट डिसप्ले में लगी थी......मुझे बहुत पसंद आ गयी लेकिन छात्र जीवन में पॉकेट में इतने पैसे तो होते नहीं थे कि महँगी शर्ट खरीदी जा सके
शर्ट देख कर तारीफ करते हुए हम वापस आ गए.....तीन- चार दिनों के बाद वो शर्ट मेरे हाथ में थी
जाने कैसे पैसों का जुगाड़ करके उतनी महँगी शर्ट मेरे लिए खरीद कर ले आई थी
यूँ तो उस पर प्यार भी बहुत आता था पर उसके झक्कीपने पर गुस्सा भी आता था
इन नोकझोंक और रूठने- मनाने के साथ समय बीत रहा था तभी एक दिन श्रुति की माँ को उसके बैग में मेरा फोटो मिल गया
बस उसके बुरे दिन आ गए......माँ-बाबूजी से डाँट पड़ी
इस झक्की ने गुस्से में एक बैग में अपने कुछ कपड़े भरे और मेरे घर पहुँच गयी
उस समय मैं घर में नहीं था पर मेरी माँ के पैर छू लिए और माँ ने प्यार से आवाभगत करके मेरे रूम में बिठा दिया
मैं दोस्तों के साथ बाजार में घूम रहा था तब तक घर में भूकंप आया चुका था जिसकी खबर भी नहीं थी
पड़ोस में रहने वाले बचपन के दोस्त ने दोस्ती का कर्तव्य निभाने के लिए मुझे ढूँढना शुरू किया.......मेरे सारे ठिकानों का उसको पता था.......घूम-घूम कर मुझे ढूँढ रहा था ताकि घर पर आए क़यामत से आगाह कर सके
पर मैं भागता फिर रहा था क्योंकि उसको अपने साथ नहीं ले जाना चाहता था
बहुत मेहनत के बाद उसने मुझको पकड़ा और जब घर के हालात की खबर दी तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई.......आज बाबूजी से जमकर पिटाई हो सकती है ,सोचते ही मैंने नीरज सहित बाकी सभी दोस्तों से उनके सारे पैसे झटके और बाइक से ही बड़े भैया के पास चल पड़ा
उधर बाबूजी ने श्रुति के बाबूजी को बुला कर उनकी बेटी उनके हवाले कर दी
उन्होंने बाबूजी का एहसान माना,जिन्होंने उनकी इज्जत जाने से बचा ली
उसके बाद श्रुति को कोलकाता भेज दिया और कुछ समय बाद खुद भी वहीं चले गए
मैंने तो दो महीने तक घर में शक्ल ही नहीं दिखाई......बाद में बाबूजी का गुस्सा शांत होने के बाद माँ और भाई की सहायता से घर में एंट्री मिली
उसके बाद से तो मानो युग बीत गया......श्रुति ख्यालों से प्रत्यक्ष तो हट निकल गयी थी लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा साथ रही......उससे जो लगाव था वो फिर कभी किसी और लड़की के साथ महसूस ही नहीं हुआ
शायद यह एक कारण है कि कभी किसी के साथ रिलेशनशिप ज्यादा बढ़ी ही नहीं
जीवन में बहुत से अनसुलझे रहस्य रहते हैं जो वक्त किसी घटना के माध्यम से सुलझा देता है ।
श्रुति का अचानक यूँ मिलना न होता तो उसके लिए अपने मन में दबे प्यार को शायद कभी समझ ही नहीं पाता
पर ये समझ भी तब आई जब वक्त निकल गया......

Monday, January 2, 2017

अपराधबोध

आज भी ऑफिस पहुँची तो रितिका के चेहरे पर वही भाव दिखे जो पिछले चार-पाँच दिनों से दिख रहा था ।
हमेशा हँसती-मुस्कुराती रहने वाली इन दिनों गुमसुम और न जाने किन ख्यालों में खोयी रहती थी ।
शुरू में तो मैंने इग्नोर किया........इंसान के मूड का कोई भरोसा नहीं होता है खासकर लड़कियों का
पर लगातार ऐसा रहने के पीछे कोई विशेष कारण होगा
मन में द्वन्द शुरू हो गया था
रितिका से उसकी परेशानी के बारे में पूछना चाहिए या नहीं.......
कभी लगता कि उसकी निजी समस्या से मेरा क्या लेना-देना.........तो कभी लगता कि बात करने से शायद उसका मन हल्का हो जाएगा..... क्या पता मैं उसकी समस्या सुलझा दूँ ।
अंत में निश्चय किया,जो हो मुझे उससे एक बार बात करनी ही चाहिए........मेरी टीम का हिस्सा है और उसके परेशान रहने का असर काम पर भी पड़ रहा ,अक्सर छोटी-छोटी गलतियाँ हो रही हैं उससे ।
लंच टाइम में मैंने उसको अपने केबिन में बुलाया और अपने साथ खाने के लिए बैठा लिया ।
खाना खाते हुए माहौल को थोड़ा हल्का बनाने के लिए कुछ जोक्स आदि सुनाती रही जिसकी प्रतिक्रिया  रितिका मेरा मान रखने के लिए एक फीकी सी मुस्कुराहट से दे रही थी ।
खाना ख़त्म करके मैं असली मुद्दे पर आई.......उससे उसकी परेशानी का कारण पूछ बैठी ।
उत्तर में एक बड़ा सा मौन और शून्य में देखती आँखें मेरे सामने था ।
उसकी हिचकिचाहट मैं समझ सकती थी ।
अपने बॉस को जबाब नहीं दूँगी कह कर मना भी नहीं कर पा रही थी और व्यक्तिगत परेशानी बताने में संकोच भी कर रही थी ।
मैंने उसको बोला - तुम भूल जाओ कि ऑफिस में हो,मैं एक शुभचिंतक के नाते तुमसे पूछ रही हूँ ।
ऑफिस की कोई प्रॉब्लम हो या घर की तुम बेझिझक मुझसे बता सकती हो ।
हम मिल कर कोई समाधान ढूंढ ही लेंगे ।
अपनी बड़ी बहन या सहेली मान कर ही शेयर कर लो और भरोसा रखो बात गुप्त ही रहेगी ।
थोड़ी हिम्मत दिखा कर उसने बोला- मेरी समस्या का कोई समाधान ही नहीं है ।
मैं बात काटते हुए बोल पड़ी- ऐसी कोई समस्या है ही नहीं जिसका कोई समाधान न हो , तुम बताओ तो पहले 
बहुत समझाने-बुझाने के बाद उसने अपना मुँह खोला
उसके बाद जो कहानी सामने आई.......उसने मेरी वर्षो की अवधारणा को तोड़ दिया ।
समाज में एक सामान्य मान्यता है.....बहु ही सास-ससुर के साथ नहीं रहना चाहती है इसलिए बुजुर्गों को अकेलेपन का सामना करना पड़ता है ।
परंतु रितिका की कहानी इसके विपरीत थी......वो अपने सास-ससुर को अपने साथ रखना चाहती थी लेकिन वो लोग नहीं रहना चाहते थे ।
उनकी इच्छा थी कि रितिका और उसके पति नौकरी छोड़ कर उनलोगों के साथ रहें ।
सास की तबियत खराब रहने लगी थी ,उनको विशेष देखभाल की आवश्यकता थी ।
ससुर भी रिटायर हो चुके थे उनसे सास की देखभाल संभव नहीं था ।
घर में और कोई था नहीं.....ननद और देवर विदेश में थे
इसलिए सबने रितिका पर दबाव बनाना शुरू किया था
उसके सास-ससुर गाँव में रहते थे.....वहाँ बच्चों की पढाई की अच्छी व्यवस्था नहीं थी ।
इधर पति-पत्नी दोनों इ एम आई के बोझ तले दबे थे ।
घर और गाड़ी का लोन तो था ही ननद की शादी में लिए गए लोन की किश्तें भी अभी चालू थीं ।
दोनों की नौकरी के सहारे घर की गाड़ी चल रही थी ।
इसलिए रितिका चाहती थी कि सास-ससुर उसके पास रहने आ जाएँ तो उनकी देखभाल भी हो जाएगी और सब कुछ सामान्य गति से चलता रहेगा ।
पर वो लोग अपना घर छोड़ कर इनके पास नहीं आना चाहते थे.....यहाँ उनको अपनी बोली,भाषा,माटी और मानुस की कमी खलती थी इसलिए अच्छा नहीं लगता था ।
ननद प्रतिदिन फोन पर भाई को लताड़ रही थी......बेटा होने का कर्तव्य नहीं निभाने की याद दिला रही थी ।
उसके अनुसार इनलोगों को माता-पिता की परवाह ही नहीं थी ।
माँ बीमार है उसको देख भाल की जरुरत है पर ये लोग यहाँ ऐश कर रहे हैं ।
वास्तिवकता उससे अलग थी.....सास के इलाज का पूरा खर्च रितिका के पति के मेडिक्लेम से हुआ था ।
देवर ने एक बार कुछ पैसे भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी ।
उसके बाद से उनलोगों की सारी जरूरतों का ख्याल ये लोग यहाँ रहते हुए भी रख रहे थे
जैसे ही रितिका के पति को समय मिलता वो छुट्टी लेकर माता-पिता से मिलने चले जाते थे ।
नियमित रूप से हर महीने पिता के एकाउंट में पैसे डाल देते थे ताकि उनको पैसों की कोई दिक्कत ना हो ।
जिस चीज की भी आवश्यकता होती थी उसको यथासंभव पूरा करते थे ।
रितिका भी कई बार उनलोगों से अनुरोध कर चुकी थी कि एक फुल टाइम मेड रख लें उसके पैसे वो दे देगी परंतु सास-ससुर को मेड के हाथ का काम पसंद नहीं आता था इसलिए नहीं रखते थे ।
उनकी बस एक ही इच्छा थी बहु आ कर रहे घर और उनकी देखभाल करे ।
बच्चों की पढाई के लिए उनकी दलील थी कि जो लोग गाँव में रह रहे हैं उनके बच्चे भी तो पढ़ ही रहे है......ये बच्चे भी पढ़ लेंगे ।
बेटा नौकरी नहीं छोड़ सकता है तो बहु कम से कम नौकरी छोड़े और साथ रहे ।
रितिका यदि नौकरी छोड़ देगी तो पति का पूरा वेतन किश्तें चुकाने में ही ख़त्म हो जाएंगी इस सच्चाई को कोई मानने को तैयार ही नहीं था ।
अब वो निश्चय नहीं कर पा रही थी कि क्या निर्णय ले......अपनी नौकरी छोड़ दे और गाँव चली जाए या जैसा चल रहा है चलने दे ।
पति अपराधबोध से ग्रस्त रहने लगे थे.....इन सबका असर इनके रिश्तों पर पड़ रहा था ।
घर में सब चिड़चिड़े हुए पड़े हैं.....पति अपना गुस्सा पत्नी पर और पत्नी अपना गुस्सा बच्चों पर निकाल रही थी.....बच्चे डरे-सहमे रहते थे,पढाई भी ठीक से नहीं कर रहे थे ।
पूरी कहानी सुन कर मुझे अपने उस कहे पर अफ़सोस हो रहा था......जो मैंने बड़े आत्मविश्वास से कहा था-ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका कोई समाधान न हो
कुछ ऐसी भी समस्याएँ होती हैं जिनका समाधान नहीं हो सकता है क्योंकि जिद का कोई समाधान नहीं होता है ।