Thursday, June 16, 2016

अधूरी माँ

एक औरत अक्सर मुझे पार्क में मिलती थी । हमेशा अकेली ही रहती थी। चालीस साल के आसपास उम्र होगी ,गोरा रंग गंभीर मुद्रा हाथ में मोबाइल और गाड़ी की चाभी लिए बच्चों के झूले के सामने वाले बेंच पर बैठी रहती थी।
शाम में मैं भी बच्चों को ले कर जाती थी। बच्चों के साथ खेल कर थक जाती तो वहीँ बेंच पर बैठ जाती थी ।
जिज्ञासावश एक दिन उससे पूछ बैठी आप अकेली ही आती हैं आपके बच्चे नहीं आते हैं यहाँ ?
मेरे बच्चे दूर रहते हैं इसलिए मैं अकेली ही आती हूँ।
कितने बच्चे हैं आपके ?
पाँच हैं चार लड़का और एक लड़की।
सुनकर मुझे झटका लगा।आज के समय में पाँच बच्चे सोच कर ही घबराहट सी होने लगी।
सबको हॉस्टल में डाल दिया है क्या आपने,कितने बड़े हैं सब ? मैं पूछ बैठी।
सबसे बड़ा लड़का ग्रैजुएशन कर रहा है दूसरा ग्यारहवीं में है तीसरा नौवीं में उससे छोटी लड़की पाँचवी में और सबसे छोटा पहली कक्षा में है और सब अपनी- अपनी माँ के पास रहते हैं।
बताते बताते उनकी आँखें नम हो गई।
मैं समझ गयी कि ये एक अधूरी माँ है जो अपनी ममता का शहद बाँट कर एक बड़े परिवार का निर्माण कर रही है,जहाँ कोई नहीं है और सब हैं।

Tuesday, June 7, 2016

वक़्त

फ्रिज में दो रसगुल्ले रखे थे,तुमने खाए हैं ??
हाँ मम्मी !
ऐसे बिना पूछे मत खा लिया करो,मैंने भोग लगाने के लिए रखे थे।
मम्मी नाराज होते हुए बोलीं
सीने में टीस सी उठ गई।
मोहित सोचने लगा,ये मेरी वही माँ हैं जो पहले दिनभर कुछ खाओगे बेटा ,पूछते हुए नहीं थकती थीं।
आजकल तो हर दूसरी बात पर मम्मी नाराज हो जाती हैं ,दिन में दस बार खर्चे,महंगाई और बचत की बातें सुनाती हैं। पापा भी दिन में एक बार तो मेरी पढाई पर हुए खर्चे की याद दिला ही देते है।
वक़्त बदल गया तो रिश्तों के एहसास भी बदल गए।
कुछ ही महीनों पहले तक जब भी घर आता तब यहाँ की फिजा कुछ और ही रहती थी।
मम्मी दिन भर प्यार लुटाते हुए आगे पीछे घूमती रहती थीं। पापा दुनिया-जहाँ की बातें करते,घर से जुड़ी समस्याओं की चर्चा करते।
कुछ महीने पहले वो कम्पनी ही बंद हो गयी जिसमें मोहित काम कर रहा था। नई नौकरी की तलाश में हाथ-पाँव मार रहा था लेकिन नौकरी इतनी आसानी से मिलती कहाँ है।
कल शाम मोबाइल रिचार्ज कराने के लिए पापा से पैसे मांगें थे तब भी मम्मी ने नसीहत देते हुए कहा,फालतू पैसे मत उड़ाओ,आमदनी नहीं है फिर भी खर्चों पर कण्ट्रोल नहीं है।
पहले हजारों रुपए मम्मी को दे देता था तब कभी मम्मी ने ऐसी नसीहतें नहीं दी,बल्कि हर आने-जाने वाले के सामने मेरे खुले दिल से खर्च करने की आदत का बखान करती रहती थीं।
कंपनी की तरफ से रहना और खाना फ्री था इसलिए बस थोड़े से पैसे अपने खर्च के लिए रख कर पूरी सैलरी घर भेज देता था ।यह सोच कर कि जो भी कमा रहा हूँ उस पर घरवालों का ही हक़ है,मुझे जरूरत ही नहीं है इसलिए कभी अपने पास कुछ बचा कर नहीं रखा।
नौकरी और पैसे ख़त्म होते ही प्यार,अपनापन,मान-सम्मान सब ख़त्म हो गया है। घर में बोझ बन गया हूँ।
माता-पिता भी ऐसा बर्ताव कर सकते हैं,सोचा भी नहीं था। रिश्ते भी पैसों के मोहताज होते हैं।
बेटा सब सामान रख लिया न।कुछ छूटा तो नहीं देख लेना। मम्मी परेशान हो रही थीं ।
मुझे नौकरी मिल गयी थी ,आज ज्वाइन करने जा रहा हूँ। घर की फ़िजा फिर से बदल गयी है।
जीवन में बुरे वक़्त का आना भी जरुरी है।