Wednesday, September 21, 2016

आश्रय

भैया एक डब्बा सेरेलक ला दो न
मैंने लाचार स्वर में अनुरोध किया....मेरी नजरें उम्मीद की किरण उनके चेहरे पर तलाश रही थीं।
थोड़ा चौंकते हुए भैया ने पूछा और कुछ भी चाहिए ?
मैंने ना का इशारा करते हुए धीरे से गर्दन हिला दिया ।
कैसे कहती उनसे कि जरुरत तो बहुत चीजों की है पर कहने में संकोच को रहा है ।
बेटे के मोह ने मुँह खोलने पर मजबूर कर दिया था इसलिए सेरेलक के लिए बोल दिया था ।
चार महीने हो गए थे वासु को सेरेलक खाए....जब भी सेरेलक का डब्बा उसको दिख जाता था
ला....ला....ला....की रट लगाने लगता था ।
मेरे पास पैसे ही नहीं थे कहाँ से लाती उसका पसंदीदा सेरेलक
आज भैया मिलने आए तो हिम्मत जुटा कर फरमाइश कर दी ।
वक़्त के रंग भी कैसे कैसे होते हैं ।
सिर्फ एक वर्ष पहले की ही बात है जब भैया मुझसे मिलने आए थे तब मेरे पास पैसों की कोई कमी नहीं थी
जी भर के शॉपिंग की थी और घर में सबके लिए उपहार भिजवाए थे उनके हाथों
वक़्त ने आज ऐसे दिन दिखा दिए कि दस रूपये के सामान के लिए भी दूसरों का मुँह ताकना पड़ रहा है ।
घर में कोई पूछता भी नहीं था मुझे किसी चीज की जरुरत है या नहीं और मेरा संकोची स्वभाव मुँह खोलने नहीं देता था ।
हँसता-खेलता परिवार था।
जान छिड़कने वाला पति और गोल-मटोल प्यारा सा बेटा ।
और क्या चाहिए था मुझे खुशियों के सागर में गोते लगाने के लिए ।
मैं अपनी ख़राब किस्मत को अब भूलने लगी थी तभी वज्रपात हुआ ।
मेरे पति आर्मी में गनर थे बेटा के जन्म के सात महीने बाद उनकी पोस्टिंग पठानकोट हो गयी ।
अभी एक महीने भी नहीं हुए थे उनको वहाँ गए हुए कि एक दिन आए एक फोन कॉल ने मुझे अपनी बदकिस्मती की याद दिला दी ।
मेरी दुनिया उजड़ गयी।
आतंकी हमले में पति शहीद हो गए थे ।
पति के तिरंगे में लिपटे शव और गोद में बेटे के साथ ससुराल पहुँची ।
गमगीन माहौल में मुझसे न जाने कितने कागजातों पर हस्ताक्षर करवाए गए
मुझे याद भी नहीं रहा।
कुछ दिनों के बाद जब जीवन सामान्य हुआ तब तक सब कुछ बदल चुका था।
घर एक चहारदीवारी बन गया था जहाँ मैं एक अनचाही सदस्य.......जिसकी किसी को भी आवश्यकता नहीं थी
सास की नजर में मैं उनके बेटे की मौत की जिम्मेदार थी ।
जेठ-जिठानी की नजर में सम्पति की हिस्सेदार......सिर्फ यही रिश्ता था मुझसे इनलोगों का ।
कल तक मेरा बेटा घर का वारिस था....जिसके जन्म पर दादा-दादी बहुत प्रसन्न हुए थे,मिठाइयाँ बाँटी थी ।
वही आज सिर्फ मेरा बेटा हो गया था......उसको प्यार से कोई दो घड़ी भी गोद में नहीं बिठाता था ।
इन्हीं सोचों में गुम थी तब तक भैया आ गए ।
सेरेलक का पैकेट मुझे पकड़ाते हुए उन्होंने पूछा- कुछ दिनों के लिए घर चलेगी ??
मैं तुम्हारे सास-ससुर से अनुमति ले लूँ ?
मैंने मौन सहमति दे दी ।
मायके जाने की कोई विशेष चाह तो नहीं थी परंतु यहाँ की चारदीवारियों के बाहर निकल कर खुली हवा में साँस लेना चाहती थी ।
थोड़ी देर बाद सास ने आ कर बोला कि अपना सामान बाँध लो.....मायके चली जाओ,भाई ले जाना चाहता है ।
आज्ञा मानते हुए मैंने भी सामान पैक कर लिया
घर पहुँच कर जब भैया ने कहा- लाडो सच बता तेरे साथ ससुराल में क्या हो रहा था ?
भैया की सहानुभूति और प्रेम ने मेरी भावनाओं का बाँध टूट पड़ा और मैं फूट-फूट कर रोने लगी ।
पिछले छः महीने में मेरे कान में प्यार के दो बोल नहीं गए थे
जीने का एकमात्र सहारा मेरा बेटा था जिसको देख कर जी रही थी ।
रो कर जब मन थोड़ा शान्त हुआ तब भैया से घर वालों के व्यवहार के बारे में बताया
बात करते-करते अचानक भैया ने पूछा -तुमको पेंशन के पैसे तो मिल रहे हैं न ?
मैंने चौंकते हुए उल्टा उनसे ही पूछा -कैसा पेंशन ? कैसे रूपये ?
मुझे तो नहीं मिला कुछ भी । घर में जो पैसे थे जो मैं ले कर आई थी उसके अलावा और कोई पैसे नहीं थे मेरे पास
भैया उस समय तो चुप रह गए ।
कुछ दिनों के बाद उन्होंने बताया कि हर महीने आर्मी की तरफ से पेंशन मनीऑर्डर से आ रहे थे और मेरे हस्ताक्षर से रिसीव भी किए गए हैं ।
हमारे यहाँ बहुएँ बाहरी लोगों के सामने नहीं जाती है इसलिए पोस्टमैन हस्ताक्षर वाला कागज़ घर के अंदर भेज देता था और हस्ताक्षर देख कर पैसे दे देता था ।
भैया ने जब छानबीन की तब सारा किस्सा पता चला ।
मेरी सास या जिठानी हस्ताक्षर करके पैसे ले लेती थी और मुझे पता भी नहीं रहता था।
पूरे परिवार की मिलीभगत से यह खेल चल रहा था ।
भैया ने बैंक में मेरा खाता खुलवाया और आर्मी हेड क्वार्टर में लिखा पढ़ी करके पेंशन के सीधे खाता में डिपॉजिट करवाने की व्यवस्था करा दी
और मुझसे कहा कि अब तुम यहीं रहो वहाँ जाने की जरुरत नहीं है ।
जब तक मैं हूँ तुम्हारी और तुम्हारे बेटे की जिम्मेदारी मैं उठाऊंगा ।
मैंने आगे पढ़ने की इच्छा जताई तो कॉलेज में एडमिशन भी करा दिया ।
लगा जिंदगी फिर से पटरी पर आ गयी है ।
भविष्य की तैयारी शुरू कर दी मैंने । ग्रेजुएशन पूरा करके प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने और नौकरी करने के सपनों ने जन्म ले लिया था ।
बिना उद्देश्य वाले जीवन को एक उद्देश्य मिल गया । मन में आशा का सँचार होने लगा ।
शादी के पहले मैंने बहुत मिन्नतें की थी कि मुझे आगे पढ़ने दें शादी मत करें पर पापा तो वही सुनते थे जो सौतेली माँ कहती थीं ।
उन्होंने न जाने कौन सी पट्टी पढ़ा रखी थी कि पापा को मेरी शादी करने से इतर कुछ भी समझने को तैयार ही नहीं थे ।
उस समय जो मेरी मिन्नतों से भी नहीं हुआ आज हो रहा था.......देर से ही सही मेरी इच्छा पूरी हो तो रही थी
पर तभी भैया ने अपनी पसंद से शादी कर ली और घर छोड़ अलग रहने लगे......मुझे भी अपने साथ ले आए ।
भाभी को अपने घर में मेरी उपस्थिति खटकने लगी
फिर शुरू हुआ मानसिक यातनाओं का एक और दौर ........... पिता के घर में सौतेली माँ से मेरा वजूद सहन नहीं होता था भाई के घर में भाभी से और पति के घर में सबके लिए असहनीय ही थी ।
डाल से टूटे सूखे पत्ते जैसी हालत थी मेरी... .....जिसे हवा यहाँ से वहाँ पहुँचा देती है पर कोई भी उसे अपने पास रखना नहीं चाहता है
जन्म लेने के साथ ही जिंदगी ने परीक्षा लेना शुरू कर दिया था जो समाप्त ही नहीं हो रहा है
जन्म के साल भर बाद ही माँ का निधन हो गया......मैं अबोध दादी और बुआओं की गोद में पलने लगी ।
साल भर बाद बुआ की शादी हो गई ।
दादी मुझे संभालती या नौकरी करतीं इसलिए पापा की दूसरी शादी कराने का निर्णय लिया गया ।
जब होश संभाला तब महसूस होने लगा कि मम्मी  भैया का तो ख्याल रखती हैं पर मेरी उपेक्षा करती हैं ।
दादी मेरी स्थिति समझ गयी और अपने साथ रखने लगीं
जब तक दादी जिन्दा रहीं जीवन में कोई परेशानी नहीं रही.......जब मैं ग्यारहवीं में थी तब दादी का साया भी उठ गया ।
अब सौतेली माँ ने अपनी वर्षो पुरानी खुन्नस निकालनी शुरू कर दी,जो दादी के संरक्षण के कारण वो नहीं कर पाई थीं ।
पापा ने तो पूर्ण आत्मसमर्पण ही कर रखा था उनके आगे पर भैया विद्रोह कर देते थे इसलिए उनसे ही थोड़ा डरती थीं ।
भैया हॉस्टल में रहते थे इसलिए माँ अपनी मनमानी कर पाती थीं ।
बारहवीं पास करते ही मेरी शादी करा कर मुझसे अपना पीछा छुड़ा लिया उन्होंने
शादी के बाद पापा ने भी कभी खोज खबर नहीं ली पर भैया ने मायके की कमी महसूस नहीं होने दी ।
उस भाई का बदला रूप ज्यादा दुखदाई है..........दादी के जाने के बाद भैया को ही अपना हमदर्द समझती रही पर जब हमदर्द ही दर्द देने लगे तब उसका इलाज कैसे होगा
भाभी झूठे लाँछन लगाती थीं और भैया बिना विचारे उसको सच मान कर मुझे डाँटने-फटकारने लगते ।
मैं हतप्रभ हो कर टुकुर-टुकुर उनको देखती रहती और वासु सहम कर मुझसे लिपट जाता था ।
एक दिन हद ही हो गयी जब भैया ने मुझपर हाथ उठा दिया........शरीर के चोट से ज्यादा दर्द पिता तुल्य भाई के व्यवहार और बोली ने दिए ।
अपनी बेबसी और दुर्भाग्य पर आँसू बहाने के सिवा और कुछ नहीं सूझ रहा था ।
समझ ही नहीं आ रहा था क्या करूँ ? कभी सोचती थी कि कहीं चली जाऊँ पर कहाँ जाऊँ ?
कभी सोचती बेटे को भी जहर दे दूँ और खुद भी खा लूँ और सारे दुखों का अंत कर लूँ ।
इन्ही विचारों की रस्सा कस्सी और आँसुओ के साथ रात बीत गयी
सुबह अकस्मात मामा जी आ गए......मेरा चेहरा देख कर उन्होंने कई बार मुझसे पूछा कि क्या परेशानी है पर अपने भाई की शिकायत मुझसे नहीं की गई
भैया से उन्होंने पूछा तो भाभी शिकायतों का पिटारा खोल के बैठ गयीं ।
सब सुन कर मामाजी मुझे अपने साथ ले आए ।
भैया-भाभी से कह दिया कि इसको समझा कर कुछ दिनों बाद वापस पहुँचा देंगे ।
मैं भी उस माहौल से दूर जाना चाहती ही थी इसलिए बिना ना नुकुर के उनके साथ चल पड़ी
एक बार फिर से एक नए ठिकाने की तरफ ..........एक बार फिर से अपने के पराएपन का दंश झेल कर ।
विधाता को अभी जिंदगी के कुछ और रँग दिखाने थे ।

इसी बीच सरकार की तरफ से शहीद के परिवार को दिए जाने वाले मुआवजे का चेक आया
ससुराल वालों को अचानक मेरी याद आने लगी और मुझ पर वापस आने के लिए दबाव डाला जाने लगा
मामा के सलाह पर मैं उनके साथ ही ससुराल गयी........इस बार माहौल बदला हुआ था......ऐसा लग रहा था जैसे शादी के बाद आई थी वही समय दुबारा आ गया है ।
मुझे और वासु को हाथों हाथ लिया गया.....कुछ ज्यादा ही ख्याल रखा जा रहा था।
हर तरफ से प्यार की बारिश हो रही थी ।
मैं सोच रही थी कि शायद इनलोगों को अपने पिछले व्यवहार की गलती समझ में आ गई इसलिए अभी सब अच्छे से व्यवहार कर रहे हैं ।
मन ही मन खुश हो रही थी देर से ही सही अपने पति के घर में मुझे अपना लिया गया ।
अब भटकने से मुक्ति मिल गयी.......मुझे स्थाई ठिकाना मिल गया ।
दूसरे ही दिन मुखौटा उतर गया और मेरी सोच सपने की तरह झूठी निकली
सारा प्यार पैसों के लिए था न कि मेरे लिए .........मामा साथ थे इसलिए उन्होंने ही मोर्चा संभाला
बहस में कुछ राज खुले तब पता चला मेरे पति के पी एफ के पैसे वो लोग पहले ही ले चुके हैं
मुझसे अनजाने में ही साइन करा कर उनलोगों ने पैसे ले लिए और अब इन पैसों पर नज़र गड़ाए हुए थे  ।
उनलोगों का तर्क था-पैसे हमारे लड़के का है,इसका क्या कुछ सालों में शादी कर लेगी तो हमारा तो लड़का भी गया और पैसे भी
इसलिए पैसे हमको दे दे और जहाँ रहना हो जो करना हो करे,हमलोगों का इससे कोई लेना-देना नहीं है ।
मामा जी ने कहा वासु आपके लड़के का लड़का है और उसका अधिकार ज्यादा है इन पैसों पर.......उसकी भविष्य की जरूरतें इन्ही पैसों से पूरी होगी
तब नया दाँव फेंका उनलोगों ने वासु को हम रखेंगे
एक माँ जिसके जीने की वजह ही उसका बेटा था, उसको पैसों के लालच में छिनने से भी गुरेज नहीं था ।
रिश्तों में भावना का कोई महत्त्व नहीं होता है क्या पैसा ही सब कुछ होता है.......मेरा दिमाग सुन्न हो गया था
बेटे के छीन जाने की कल्पना मात्र से मेरा शरीर निष्प्राण हुआ जा रहा था
अंत में पैसे वासु के नाम एफ डी करने पर समझौता हुआ

इस बार पैसे ससुराल वालों के हाथ नहीं लगा तो उसका गुस्सा निकालने के लिए एक नया तरीका ढूंढ़ लिया उनलोगों ने
पैतृक संपत्ति को बेचना और जिठानियों के नाम पर नयी सम्पति लेने का खेल शुरू हो गया
भविष्य में वासु यदि पैतृक सम्पति में से हिस्सा माँगे तो पैतृक सम्पति ही नहीं रहेगी फिर हिस्सा कहाँ से मिलेगा
मैं समझ नहीं पा रही थी कि वो किसको अपना शत्रु समझ रहे थे उस बच्चे को
जो उनके ही भाई का अंश था या मुझे जिसे उन्ही लोगों ने पसंद कर अपने भाकी अर्धांनी बनाया था
बेटा और भाई के नहीं रहने पर उसकी पत्नी और बच्चे की जिम्मेदारी उठाना जिन लोगों की नैतिक जिम्मेदारी थी
वही लोग हमदोनों को बेसहारा बेघर करने के हर संभव उपाय कर रहे थे ।
मुझे भी जिंदगी ने एक पाठ पढ़ा दिया कि कुछ रिश्ते-नाते नेह के बन्धन से नहीं पैसों के बन्धन से बँधे होते हैं
ससुराल से नाता टूटा, मायके से दूर हुई
मामा के सहारे जीवन पथ पर आगे बढ़ रही थी
किसी तरह ग्रेजुएशन पूरा हुआ, अब आगे क्या करूँ ?
दिन प्रतिदिन खर्च बढ़ते जा रहे थे पर पेंशन के पैसे उतने ही थे ।
बच्चे के स्कूल का फी अपनी पढाई का खर्च तो था ही इसके साथ छोटे छोटे दसियों जरूरतें सामने आ ही जाते......कितना भी मुठ्ठी दबा के खर्च करूँ पैसे कम ही पड़ रहे थे ।
अब पहली चुनौती थी आय का कोई स्त्रोत ढूँढना........सिंपल ग्रेजुएशन करके कौन सी नौकरी मिलती
कम्प्यूटर का बेसिक कोर्स किया और एक क्लीनिक में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी करने लगी ।
पर यह मेरी मंजिल नहीं थी इसलिए पत्राचार से एम बी ए करने लगी ।
बेटा भी स्कूल जाने लगा था
लग रहा था अब सब कुछ सामान्य हो जाएगा पर सब कुछ ज्यादा दिनों तक सामान्य रहना मेरे भाग्य में ही नहीं था ।
मेरे नौकरी की खबर जब भैया को पता चली तो उनका मान-सम्मान खतरे में पड़ गया ।
उनके घर की बेटी नौकरी करेगी तो समाज में क्या इज्जत रह जाती
घर की औरत,चाहे वो पत्नी हो,बेटी हो या बहू..... भूखी,बेबस,बेसहारा रहे परिवार की इज्जत को कोई खतरा नहीं होता है
लेकिन घर से बाहर निकल कर कुछ काम करने लगे तो इज्जत ख़त्म हो जाती है
इंसान की कैसी सोच है जिसमें सम्मान बेबसी और लाचारी से मरने में है...अपने पैरों पर खड़ा हो कर जीने में नहीं
रिश्तेदारों के दबाव में मैंने नौकरी छोड़ दी पर पैसों की आवश्यकता भी थी और स्वावलम्बी बनने की मेरी जिद भी ।
एक बार फिर से नई राह पर चली.....एक एन जी ओ के स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम से जुड़ी और ब्यूटी पार्लर का कोर्स कर घर के बरामदे में छोटा सा पार्लर सेट किया सिर्फ एक कुर्सी और एक मिरर के साथ
शुरुआत में लोग भरोसा नहीं करते थे ,धीरे-धीरे मेरा काम पसंद आने लगा और जगह छोटी पड़ने लगी ।
समय के साथ पार्लर बड़ा होता गया मेरी एम बी ए की पढाई भी पूरी हो गयी ।
आज शहर में मेरे पार्लर के चार ब्रांच हैं और हर्बल कॉस्मेटिक की छोटी सी फैक्टरी भी ।
बेटा एन डी ए में है...........भाभी सावन चढ़ते ही रक्षा बंधन में आने के लिए आग्रह करने लगती हैं पर मैं नहीं जाती हूँ
जिस भाई ने बहन की रक्षा करने का वचन उस समय नहीं निभाया जब मुझे जरुरत थी
उस भाई को राखी बाँधने का औचित्य ही नहीं था
मेरी सौतेली माँ अब मेरे साथ ही रहती हैं
क्योंकि बेटे-बहू से बनती नहीं है और जमाई उनको अपने साथ नहीं रखना चाहता है ।
सास पर अपनी कमाई क्यों खर्च करे वो.....सारी सम्पति तो बेटे के नाम कर दिया था उनके पति ने- ऐसा कह कर उसने उनकी जिम्मेदारी उठाने से इंकार कर दिया ।
बहुत बीमार थी.......पड़ोस की बुआ से पता चला तब मैं उनको अपने पास ले आई, ईलाज कराया ।
तब से मेरे पास ही हैं..........बेसहारा,विधवा के तकलीफ को मैं जानती हूँ इसलिए नहीं चाहती थी कि कोई औरत उस तकलीफ से गुजरे ।
"आश्रय" नाम से एक विधवा आश्रम की स्थापना भी की जहाँ विधवा एवं परित्यक्ताओं के रहने एवं उनकी रूचि और सामर्थ्य के अनुसार व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था है ।
ये औरतें भी सशक्त बनेंगी और स्वाभिमान से सर उठा कर जियेंगी ।
जीवन के थपेड़ों ने दादी की प्रिय लोकोक्ति पैसा तेरे तीन नाम- परसा, परशु और परशुराम का अर्थ व्यवहारिक रूप से समझा दिया था ।
यह थी मेरी यानि छाया की बुआ रजनी वर्मा की आत्मकथा
"आश्रय " की ट्रस्टी रजनी वर्मा की आत्मकथा को उत्सुकतावश नेट से मँगाया था पर
जब इसको पढ़ना शुरू किया तो कैसे रात बीत गयी पता ही नहीं चला ।
बहुत से रहस्यों से पर्दा भी उठ गया जैसे बुआ और पापा बात क्यों नहीं करते है.....बुआ राखी क्यों नहीं भेजती हैं ?
अभी तक मैं समझती थी कि बुआ घमण्डी हैं ,रईस हैं इसलिए अपने गरीब रिश्तेदारों से दूर रहती हैं।
आज सुबह के उगते सूरज के साथ एक संकल्प का उदय भी मेरे मन में हुआ है........मैं अपनी बुआ जैसी बनूँगी,परिस्थितियों से लडूंगी पर कभी हार नहीं मानूँगी
विश्वास दृढ़ हो गया कि परिस्थितियाँ बदलती जरूर हैं हिम्मत के साथ डट कर सामना करने की आवश्यकता होती है बस ।

Friday, July 29, 2016

प्रेम प्रतिज्ञा

सौरभ ने नयी कंपनी ज्वाइन की तो शहर भी बदलना पड़ा।
नए शहर में नए वातावरण में अजनबी लोगों के साथ एडजस्ट होने की कोशिश में लगी हुई थी।
यहाँ हर तरफ अजनबी चेहरे ही थे, अजनबी चेहरों की भीड़ में एक चेहरे पर नज़र अटक जाती थी
ऐसा लगता जैसे जाना-पहचाना चेहरा है। एक लगाव महसूस होता था।
कभी कभी किसी अजनबी को देख कर अपनेपन का एहसास होता है ,ऐसा ही मुझे लगता था मानसी दी को देख कर।
सुबह बालकनी में गमलों में लगे पौधों में मेरे पानी देने का समय और उनका बाहर जाने का समय एक ही रहता था उसी तरह दोपहर में मैं सूखे कपड़े उठा रही होती थी तब वो वापस आती हुई दिखती थीं। कभी नजरें मिल जाती तो मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाता। धीरे-धीरे सोसायटी में आते जाते मुलाकातें भी होने लगी और हमारी दोस्ती हो गयी।
मुस्कानों के लेन-देन से शुरू हुआ सिलसिला जल्द ही एक-दूसरे के घर आने-जाने और खाने-खिलाने तक पहुँच गया।
संयोगवश हमलोग एक ही जगह के रहने वाले थे इसलिए खान-पान,तीज-त्योहार सब सामान ही थे।इस समानता ने हमारे संबंध को प्रगाढ़ करने में बड़ी भूमिका निभाई।
मुझे नए शहर में एक गाइड मिल गयी और उनको एक सहेली।
मानसी दी का फ्लैट मेरी ही बिल्डिंग में दूसरी मंजिल पर था और मेरा पाँचवी मंजिल पर।
वो अकेली ही रहती थीं,गर्ल्स कॉलेज में लेक्चरर थीं। सौम्य,मृदुभाषी,गंभीर और सहज व्यक्तित्व वाली मानसी दी के चेहरे पर उदासी की हल्की सी छाया दिखती थी।
किसी के व्यक्तिगत जीवन में तांक-झांक न करने के मेरे स्वभाव के कारण उनसे कभी उनके घर-परिवार के बारे में पूछा ही नहीं,
जितना उन्होंने स्वेच्छा से बता दिया उतना मैंने जान लिया और मन ही मन कल्पना कर ली,तलाकशुदा या विधवा होंगी,उसी तकलीफ की छाया उनके चेहरे पर दिखती है।
मेरी इस कल्पना का यथार्थ से सामना हुआ करवाचौथ के दिन।
हुआ यह कि इस बार मैं करवाचौथ पर अकेली थी,इसके पहले घर में सबके साथ ही व्रत रखा था ।
शादी दो साल पहले ही हुई थी
इसलिए रीति-रिवाजों की खास जानकारी नहीं थी,वहाँ सासु माँ और जिठानी जी ने ही सारी तैयारी की थी मुझे कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
सासु माँ से फोन पर पूछ कर ही तैयारी की।
दोपहर में ख्याल आया कि मानसी दी को अपनी तैयारी दिखा देती हूँ कुछ कमी होगी तो वो बता देंगी और रात के खाने का भी निमंत्रण दे दूँगी....ऐसा सोच कर उनके घर चली गयी।
कामवाली ने दरवाजा खोला और बताया दीदी पूजा वाले कमरे में हैं।
मैं भी वहीँ चली गयी पर......... वहाँ पहुँच कर हतप्रभ हो गयी।
हमेशा हल्के रँग के कपड़े पहनने वाली मानसी दी आज लाल रँग की साड़ी में दुल्हन की तरह सजी हुई थीं।
उनका यह रूप मेरे लिए कल्पनातीत था।
दीदी मुझे देख कर मुस्कुराई और मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लिया।
अच्छा किया जो तू आ गई, मेरा मन हो रहा था तुझसे बात करने का ।
मैंने कौतुहल को दबाते हुए हमेशा की तरह कहा- हाँ तो फोन कर लेती न
जबकि दिमाग में तो खलबली मच रही थी,प्रश्नों का ज्वार-भाटा उठ रहा था।
फोन से तो नहीं दिल से बुलाया था और देख तो तू आ भी गई-उन्होंने प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
अभी तुम्हारे मन में बहुत से सवाल उठ रहे हैं.....मुझे पता है ।
तुम जो पूछना चाहती हो वो सब मैं बिना पूछे ही बता देती हूँ ।
तुम अभी फ्री तो हो न क्योंकि किस्सा लंबा है- उन्होंने अचानक पूछ लिया।
हाँ-हाँ बिलकुल फ्री हूँ- मैंने जल्दी से कहा जैसे जबाब देने में थोड़ी भी देर हुई तो वो कहीं बताने का इरादा न बदल दें।
बात शुरू करने से पहले उन्होंने एक एल्बम मेरे हाथ में पकड़ा दिया।
ये तो आपकी सगाई की तस्वीरें हैं- तस्वीरों को देख कर मैं ख़ुशी से चहकी।
दीदी न जानें क्यों मुझे आपके पति का चेहरा जाना-पहचाना सा लग रहा है - अपनी याददाश्त पर जोर डालते हुए मैं बोल पड़ी।
हो सकता है,एक ही शहर में रहने वाले हो तुमदोनों तो देखा होगा - दीदी बोलीं।
अच्छा छोड़िए, पहले आप जो बताने वाली थीं वो बताइए न।
ठीक है सुनो- दीदी ने बोलना शुरू किया।
ऋषभ आर्मी में कैप्टन थे,सगाई के बाद वापस ड्यूटी पर जा रहे थे।रास्ते में किसी स्टेशन पर ट्रेन से उतरे थे,वापस ट्रेन पर चढ़ने की हड़बड़ी में प्लेटफार्म पर गिरे केले के छिलके पर ध्यान नहीं रहा और पैर फ़िसल जाने के कारण ट्रेन के नीचे आ गए।
ईश्वर की कृपा से इस दुर्घटना में उनकी जान तो बच गयी पर एक पैर कट गया।
इस दुर्घटना ने कुछ जिंदगी और सोच को बदल दिया ।
ऋषभ की शारीरिक स्थिति तो बदल ही गयी उनके घर वालों के मानसिक स्थिति भी बदल गयी।
मुझे मनहूस मान कर रिश्ता तोड़ दिया गया।
मेरे घरवालों की दिलचस्पी भी इस रिश्ते में नहीं रही क्योंकि लड़के में शारीरिक दोष आ गया था ,जिसके साथ शादी करके बेटी का भविष्य ख़राब हो जाता।
मुझसे किसी ने भी कुछ नहीं पूछा न मेरे बारे में जानना चाहा, सिर्फ सूचना दे दी गइ।
जानती हो,हमारा समाज पहले की तुलना में बदला तो है स्त्री की दशा में यूँ देखो तो क्रांतिकारी परिवर्तन दिखता है।
आज औरतों में शिक्षा का प्रतिशत और स्वालंबन बढ़ा है।
पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला कर चल रही है फिर भी दोयम दर्जे की हैसियत बरकरार है।
शादी से पहले बेटियों को और शादी के बाद बहू या पत्नी को हाड़-माँस से बना एक मशीन समझा जाता जो संवेदना रहित हो।
मेरे साथ भी यही हुआ
किसी को भी मेरी भावनाओं की परवाह नहीं थी
मैं संवेदनहीन मशीन नहीं हूँ
मेरी भी भावनाएं थीं जिसकी परवाह किसी को नहीं थी।
एक दिन बता दिया गया अमुक आदमी तुम्हारा जीवनसाथी है
जब मैंने उसको अपना मान लिया तब एक दिन बताया गया अब उसके साथ तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं रहा
यादों के समुद्र में गोते लगाती मानसी दी बोले जा रही थीं
कुछ क्षण चुप रह कर उन्होंने कहना शुरू किया
कुछ महीनों के बाद माँ ने मुझे किसी लड़के के बारे में बताया
जिसके घरवाले मुझे देखने आने वाले थे।
मैंने हिम्मत करके शादी न करने का अपना फैसला सुना दिया।
इसके बाद तो घर में भूचाल ही आ गया।
माँ ने प्यार से समझाने की कोशिश की,भाभी ने मनुहार किया
भाई और पापा ने डाँट कर बात मनवाने का प्रयास किया।
क्योंकि पिता या भाई तर्क-वितर्क से कायल नहीं होते हैं बल्कि चिढ़ जाते हैं
उस समय पिता या भाई नहीं एक पुरुष की तरह सोचते हैं जिनकी नजर में अपनी काबिलियत के बल पर समाज में या ऑफिस में प्रतिष्ठा पाने वाली स्त्री की भी घर में कोई अहमियत नहीं होती है।
जब अंगद के पैर की तरह मैं अपने निर्णय पर अडिग रही तब सबने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया।
भाग्य ने साथ दिया, मुझे यहाँ नौकरी मिल गयी और मुझे उनलोगों की नाराज़ निगाहों से दूर जाने का मौका मिल गया।
इतना कह कर मानसी दीदी चुप हो गयीं।
दीदी आपने मेरी उलझनें और बढ़ा दी,जिज्ञासा जस की तस है।
आपने शादी नहीं करने की प्रतिज्ञा क्यों कर ली और आज दुल्हन जैसा श्रृंगार क्यों किया है ?
ऐसा तो नहीं कि इरादा बदल लिया और चुपके-चुपके शादी करने जाने का प्रोग्राम था ?
मैं अपनी ही धुन में बोलती चली जा रही थी
धत् पगली ! प्यार से एक चपत लगाते हुए उन्होंने कहा-आज करवा चौथ का व्रत रखा है इसलिए श्रृंगार कर लिया।
करवाचौथ का व्रत शादी के बाद करते हैं न !
अभी तो आपने कहा ,आपकी शादी नहीं हुई फिर-मैंने उनको टोका
तुम नहीं समझोगी,जब मेरे माता-पिता ही मेरी भावनाओं को नहीं समझ सके तब किसी और से कैसे उम्मीद कर सकती हूँ-निराश स्वर में उन्होंने धीरे से कहा।
उस समय मुझे अपनी बुद्धि पर तरस आ रहा था जो इस पहेली को सुलझा नहीं पा रहा था ।
हिम्मत जुटा कर मैंने एक बार फिर आग्रह किया-दीदी प्लीज खुल कर समझाइए न।
सगाई के कुछ ही दिनों के बाद करवाचौथ पड़ा था
जिस दिन मेरी सगाई हुई उस दिन ही मैंने ऋषभ को अपना पति मान लिया था
इसलिए मैंने भी व्रत रखा था
अब दुर्योग कहूँ या संयोग उसी दिन ऋषभ का एक्सीडेंट हुआ।
परन्तु मेरे मन में यह बात बैठ गयी कि मेरे व्रत ने उनकी रक्षा की
तब से हर साल उनके लिए ही व्रत रखती हूँ।
अब तुम्ही बताओ जिसके साथ इतनी गहराई से मन जुड़ गया हो उसको छोड़ किसी और को पति कैसे स्वीकार कर लूँ.........क्या किसी और के लिए करवाचौथ का व्रत इतने दृढ़ विश्वास से रख पाऊँगी।
इसलिए मैंने किसी और से शादी नहीं की
देखो,पति-पत्नी का रिश्ता संकल्प का रिश्ता ही होता है न- उन्होंने मुझे समझाने वाले अंदाज में कहा।
जब दो लोग परिवार और समाज को साक्षी बना कर एक दूसरे को पति और पत्नी स्वीकार करने का संकल्प लेते हैं,उसी को तो शादी करना कहते हैं।
मैंने और ऋषभ ने भी सगाई में एक दूसरे को अँगूठी पहना कर मन ही मन में पति-पत्नी स्वीकार किया ही था
इसलिए स्वयं को विवाहिता ही मानती हूँ।
क्या हुआ जो सशरीर वो मेरे साथ नहीं रहते हैं पर मन में तो वही हैं और हमेशा रहेंगे- कहते हुए भावुक हो गयीं
आपको आधुनिक मीरा कहूँ तो गलत नहीं होगा-मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया।
तभी मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी और बात में व्यवधान आ गया।
देखा तो सौरभ का फोन था
आज जल्दी घर आ गए थे और घर बंद देख कर फोन किया था
मैंने जल्दी से दीदी को घर आने का निमंत्रण दिया और एक साथ पूजा करने का अनुरोध करके अपने घर भागी।
सौरभ फ्रेश होने गए और मैं उनके लिए चाय बनाते हुए बेसब्री से इस अनोखी कहानी को उनसे साझा करने का इंतज़ार करने लगी।
आज चाय के साथ पकौड़ी की जगह कहानी ही परोस दिया।
कहानी सुनने के बाद लंबी गहरी साँस छोड़ते हुए सौरभ ने कहा- अभी तुम पूजा की तैयारी करो ।
बहुत जल्द इस अधूरी कहानी को पूरी करने का प्रयास करेंगे।
आप कैसे पूरी करवा सकते हैं-मैंने हैरत से पूछा।
सब बताऊंगा,पहले तुम पूजा की तैयारी करो चाँद बस निकलने वाला ही होगा- कहते हुए उन्होंने मुझसे पीछा छुड़ाया
परिस्थितियां कुछ ऐसी हुई कि अगले दिन ही सौरभ को ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़ा।
कहानी को पूरा करने की योजना के बारे में बात करने का मौका नहीं मिला।
दो दिन बाद शाम में जब सौरभ लौटे तब उनके साथ उनके ममेरे भाई भी थे।
चाय नाश्ता करने के बाद सौरभ ने
मुझसे कहा कि जा कर मानसी दीदी को बुला लाऊँ और उनसे कह दूँ कि आज सौरभ स्पेशल बिरयानी खिलाएंगे
मानसी दी के आने पर सौरभ ने उनसे कहा-बॉलकनी में एक सरप्राइज़ है उनके लिए और मुझे किचन में बुला लिया अपनी मदद के लिए।
मेरा मन तो मानसी दी के सरप्राइज़ के बारे में जानने में अटका था
मैंने सब्र का दामन छोड़कर सौरभ से पूछ ही लिया कि कौन सा सरप्राइज़ है जिसके बारे में मुझे भी नहीं पता
सब्जी काटते हुए उन्होंने कहा- तुमको याद है करवाचौथ वाले दिन मैंने कहा था अधूरी कहानी को मुकम्मल करने का प्रयास करुंगा।
जब तुमने मानसी दी की कहानी सुनाई थी तब मुझे पता चला कि ऋषभ भैया की जिससे शादी होने वाली थी वो लड़की मानसी दी हैं
उनको फोन करके सबकुछ बताया तब वो भी आश्चर्यचकित हुए और शर्मिंदा भी ।
सबको यही उम्मीद थी कि उस लड़की की शादी कहीं हो गयी होगी।
ऐसे जोग ले कर कोई बैठ जाएगी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था।
ऋषभ भैया ने भी अभी तक शादी नहीं की है इसलिए मुझे लगा कि शायद बात बन जाए।
आमने-सामने बैठ कर दोनों एक दूसरे को अपने मन की बात कह लें
इसलिए भैया को यहाँ बुलाया और देखो न वो भी भागे-भागे आ गए।
मानसी दी ने तो बोला था कि ऋषभ भैया का एक पैर कट गया था लेकिन इनके दोनों पैर हैं , रिश्ता तोड़ने के लिए झूठ बोला था क्या आपके मामा ने-अचानक मुझे याद आया तो मैंने अपना संदेह प्रगट किया।
सौरभ ने हँसते हुए कहा- तुम औरतें भी न बेहद शक्की होती हो,भैया की एक टाँग नकली है जयपुर फुट लगवा रखा है।
खाना तैयार होने पर उनदोनो को खाने के लिए बुलाने गयी तो देखा
दीदी ने भैया का हाथ ऐसे पकड़ रखा है जैसे किसी को भी छुड़ाने नहीं देंगी।
दोनों की आँखें भरी हुई थी।
भैया उनके आँसू पोंछते हुए कह रहे थे- मुझे तुमसे पहली नज़र में ही प्यार हो गया था पर अपनी शारीरिक अपूर्णता का बोझ तुम्हारे ऊपर डाल कर तुम्हारा जीवन ख़राब नहीं करना चाहता था इसलिए शादी से इनकार कर दिया था ।
मैं सोच रहा था कि तुम अपने जीवन की नयी शुरुआत कर चुकी होगी।
दीदी ने सिसकते हुए पूछा-,शादी के बाद अगर ऐसी दुर्घटना होती तो क्या आप मुझे तलाक दे देते या मैं आपसे तलाक ले कर दूसरी शादी कर लेती ?
शारीरिक अपूर्णता तो पूरी हो भी जाती है और सिर्फ शारीरिक पूर्णता और अपूर्णता ही महत्वपूर्ण नहीं होती है
मन का मीत न मिले तो ह्रदय भी अपूर्ण रहता है।
भैया ने कहा-
ईश्वर ने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का पूरक बनाया है
इस रहस्य को न समझना मेरी भूल थी
इसलिए अच्छा बिजनेस ,पैसा नाम सब पाकर भी अपने आपको अपूर्ण ही महसूस करता था
आज तुमसे मिलने के बाद खुद में पूर्णता का वही एहसास हो रहा है जो पहली बार मिल कर हुआ था।
मैंने उनकी बातों को बीच में ही रोक दिया नहीं तो पूरी रात गुजर जाती पर बातें ख़त्म न होतीं
खाने के टेबल पर दोनों को साथ बैठा देख कर ख़ुशी की अनुभूति हो रही थी।
क्योंकि उन दोनों की आँखों में अब कभी नहीं बिछड़ने का वादा और प्यार को पा लेने की ख़ुशी दिख रही थी