Friday, July 29, 2016

प्रेम प्रतिज्ञा

सौरभ ने नयी कंपनी ज्वाइन की तो शहर भी बदलना पड़ा।
नए शहर में नए वातावरण में अजनबी लोगों के साथ एडजस्ट होने की कोशिश में लगी हुई थी।
यहाँ हर तरफ अजनबी चेहरे ही थे, अजनबी चेहरों की भीड़ में एक चेहरे पर नज़र अटक जाती थी
ऐसा लगता जैसे जाना-पहचाना चेहरा है। एक लगाव महसूस होता था।
कभी कभी किसी अजनबी को देख कर अपनेपन का एहसास होता है ,ऐसा ही मुझे लगता था मानसी दी को देख कर।
सुबह बालकनी में गमलों में लगे पौधों में मेरे पानी देने का समय और उनका बाहर जाने का समय एक ही रहता था उसी तरह दोपहर में मैं सूखे कपड़े उठा रही होती थी तब वो वापस आती हुई दिखती थीं। कभी नजरें मिल जाती तो मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाता। धीरे-धीरे सोसायटी में आते जाते मुलाकातें भी होने लगी और हमारी दोस्ती हो गयी।
मुस्कानों के लेन-देन से शुरू हुआ सिलसिला जल्द ही एक-दूसरे के घर आने-जाने और खाने-खिलाने तक पहुँच गया।
संयोगवश हमलोग एक ही जगह के रहने वाले थे इसलिए खान-पान,तीज-त्योहार सब सामान ही थे।इस समानता ने हमारे संबंध को प्रगाढ़ करने में बड़ी भूमिका निभाई।
मुझे नए शहर में एक गाइड मिल गयी और उनको एक सहेली।
मानसी दी का फ्लैट मेरी ही बिल्डिंग में दूसरी मंजिल पर था और मेरा पाँचवी मंजिल पर।
वो अकेली ही रहती थीं,गर्ल्स कॉलेज में लेक्चरर थीं। सौम्य,मृदुभाषी,गंभीर और सहज व्यक्तित्व वाली मानसी दी के चेहरे पर उदासी की हल्की सी छाया दिखती थी।
किसी के व्यक्तिगत जीवन में तांक-झांक न करने के मेरे स्वभाव के कारण उनसे कभी उनके घर-परिवार के बारे में पूछा ही नहीं,
जितना उन्होंने स्वेच्छा से बता दिया उतना मैंने जान लिया और मन ही मन कल्पना कर ली,तलाकशुदा या विधवा होंगी,उसी तकलीफ की छाया उनके चेहरे पर दिखती है।
मेरी इस कल्पना का यथार्थ से सामना हुआ करवाचौथ के दिन।
हुआ यह कि इस बार मैं करवाचौथ पर अकेली थी,इसके पहले घर में सबके साथ ही व्रत रखा था ।
शादी दो साल पहले ही हुई थी
इसलिए रीति-रिवाजों की खास जानकारी नहीं थी,वहाँ सासु माँ और जिठानी जी ने ही सारी तैयारी की थी मुझे कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
सासु माँ से फोन पर पूछ कर ही तैयारी की।
दोपहर में ख्याल आया कि मानसी दी को अपनी तैयारी दिखा देती हूँ कुछ कमी होगी तो वो बता देंगी और रात के खाने का भी निमंत्रण दे दूँगी....ऐसा सोच कर उनके घर चली गयी।
कामवाली ने दरवाजा खोला और बताया दीदी पूजा वाले कमरे में हैं।
मैं भी वहीँ चली गयी पर......... वहाँ पहुँच कर हतप्रभ हो गयी।
हमेशा हल्के रँग के कपड़े पहनने वाली मानसी दी आज लाल रँग की साड़ी में दुल्हन की तरह सजी हुई थीं।
उनका यह रूप मेरे लिए कल्पनातीत था।
दीदी मुझे देख कर मुस्कुराई और मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लिया।
अच्छा किया जो तू आ गई, मेरा मन हो रहा था तुझसे बात करने का ।
मैंने कौतुहल को दबाते हुए हमेशा की तरह कहा- हाँ तो फोन कर लेती न
जबकि दिमाग में तो खलबली मच रही थी,प्रश्नों का ज्वार-भाटा उठ रहा था।
फोन से तो नहीं दिल से बुलाया था और देख तो तू आ भी गई-उन्होंने प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
अभी तुम्हारे मन में बहुत से सवाल उठ रहे हैं.....मुझे पता है ।
तुम जो पूछना चाहती हो वो सब मैं बिना पूछे ही बता देती हूँ ।
तुम अभी फ्री तो हो न क्योंकि किस्सा लंबा है- उन्होंने अचानक पूछ लिया।
हाँ-हाँ बिलकुल फ्री हूँ- मैंने जल्दी से कहा जैसे जबाब देने में थोड़ी भी देर हुई तो वो कहीं बताने का इरादा न बदल दें।
बात शुरू करने से पहले उन्होंने एक एल्बम मेरे हाथ में पकड़ा दिया।
ये तो आपकी सगाई की तस्वीरें हैं- तस्वीरों को देख कर मैं ख़ुशी से चहकी।
दीदी न जानें क्यों मुझे आपके पति का चेहरा जाना-पहचाना सा लग रहा है - अपनी याददाश्त पर जोर डालते हुए मैं बोल पड़ी।
हो सकता है,एक ही शहर में रहने वाले हो तुमदोनों तो देखा होगा - दीदी बोलीं।
अच्छा छोड़िए, पहले आप जो बताने वाली थीं वो बताइए न।
ठीक है सुनो- दीदी ने बोलना शुरू किया।
ऋषभ आर्मी में कैप्टन थे,सगाई के बाद वापस ड्यूटी पर जा रहे थे।रास्ते में किसी स्टेशन पर ट्रेन से उतरे थे,वापस ट्रेन पर चढ़ने की हड़बड़ी में प्लेटफार्म पर गिरे केले के छिलके पर ध्यान नहीं रहा और पैर फ़िसल जाने के कारण ट्रेन के नीचे आ गए।
ईश्वर की कृपा से इस दुर्घटना में उनकी जान तो बच गयी पर एक पैर कट गया।
इस दुर्घटना ने कुछ जिंदगी और सोच को बदल दिया ।
ऋषभ की शारीरिक स्थिति तो बदल ही गयी उनके घर वालों के मानसिक स्थिति भी बदल गयी।
मुझे मनहूस मान कर रिश्ता तोड़ दिया गया।
मेरे घरवालों की दिलचस्पी भी इस रिश्ते में नहीं रही क्योंकि लड़के में शारीरिक दोष आ गया था ,जिसके साथ शादी करके बेटी का भविष्य ख़राब हो जाता।
मुझसे किसी ने भी कुछ नहीं पूछा न मेरे बारे में जानना चाहा, सिर्फ सूचना दे दी गइ।
जानती हो,हमारा समाज पहले की तुलना में बदला तो है स्त्री की दशा में यूँ देखो तो क्रांतिकारी परिवर्तन दिखता है।
आज औरतों में शिक्षा का प्रतिशत और स्वालंबन बढ़ा है।
पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला कर चल रही है फिर भी दोयम दर्जे की हैसियत बरकरार है।
शादी से पहले बेटियों को और शादी के बाद बहू या पत्नी को हाड़-माँस से बना एक मशीन समझा जाता जो संवेदना रहित हो।
मेरे साथ भी यही हुआ
किसी को भी मेरी भावनाओं की परवाह नहीं थी
मैं संवेदनहीन मशीन नहीं हूँ
मेरी भी भावनाएं थीं जिसकी परवाह किसी को नहीं थी।
एक दिन बता दिया गया अमुक आदमी तुम्हारा जीवनसाथी है
जब मैंने उसको अपना मान लिया तब एक दिन बताया गया अब उसके साथ तुम्हारा कोई रिश्ता नहीं रहा
यादों के समुद्र में गोते लगाती मानसी दी बोले जा रही थीं
कुछ क्षण चुप रह कर उन्होंने कहना शुरू किया
कुछ महीनों के बाद माँ ने मुझे किसी लड़के के बारे में बताया
जिसके घरवाले मुझे देखने आने वाले थे।
मैंने हिम्मत करके शादी न करने का अपना फैसला सुना दिया।
इसके बाद तो घर में भूचाल ही आ गया।
माँ ने प्यार से समझाने की कोशिश की,भाभी ने मनुहार किया
भाई और पापा ने डाँट कर बात मनवाने का प्रयास किया।
क्योंकि पिता या भाई तर्क-वितर्क से कायल नहीं होते हैं बल्कि चिढ़ जाते हैं
उस समय पिता या भाई नहीं एक पुरुष की तरह सोचते हैं जिनकी नजर में अपनी काबिलियत के बल पर समाज में या ऑफिस में प्रतिष्ठा पाने वाली स्त्री की भी घर में कोई अहमियत नहीं होती है।
जब अंगद के पैर की तरह मैं अपने निर्णय पर अडिग रही तब सबने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया।
भाग्य ने साथ दिया, मुझे यहाँ नौकरी मिल गयी और मुझे उनलोगों की नाराज़ निगाहों से दूर जाने का मौका मिल गया।
इतना कह कर मानसी दीदी चुप हो गयीं।
दीदी आपने मेरी उलझनें और बढ़ा दी,जिज्ञासा जस की तस है।
आपने शादी नहीं करने की प्रतिज्ञा क्यों कर ली और आज दुल्हन जैसा श्रृंगार क्यों किया है ?
ऐसा तो नहीं कि इरादा बदल लिया और चुपके-चुपके शादी करने जाने का प्रोग्राम था ?
मैं अपनी ही धुन में बोलती चली जा रही थी
धत् पगली ! प्यार से एक चपत लगाते हुए उन्होंने कहा-आज करवा चौथ का व्रत रखा है इसलिए श्रृंगार कर लिया।
करवाचौथ का व्रत शादी के बाद करते हैं न !
अभी तो आपने कहा ,आपकी शादी नहीं हुई फिर-मैंने उनको टोका
तुम नहीं समझोगी,जब मेरे माता-पिता ही मेरी भावनाओं को नहीं समझ सके तब किसी और से कैसे उम्मीद कर सकती हूँ-निराश स्वर में उन्होंने धीरे से कहा।
उस समय मुझे अपनी बुद्धि पर तरस आ रहा था जो इस पहेली को सुलझा नहीं पा रहा था ।
हिम्मत जुटा कर मैंने एक बार फिर आग्रह किया-दीदी प्लीज खुल कर समझाइए न।
सगाई के कुछ ही दिनों के बाद करवाचौथ पड़ा था
जिस दिन मेरी सगाई हुई उस दिन ही मैंने ऋषभ को अपना पति मान लिया था
इसलिए मैंने भी व्रत रखा था
अब दुर्योग कहूँ या संयोग उसी दिन ऋषभ का एक्सीडेंट हुआ।
परन्तु मेरे मन में यह बात बैठ गयी कि मेरे व्रत ने उनकी रक्षा की
तब से हर साल उनके लिए ही व्रत रखती हूँ।
अब तुम्ही बताओ जिसके साथ इतनी गहराई से मन जुड़ गया हो उसको छोड़ किसी और को पति कैसे स्वीकार कर लूँ.........क्या किसी और के लिए करवाचौथ का व्रत इतने दृढ़ विश्वास से रख पाऊँगी।
इसलिए मैंने किसी और से शादी नहीं की
देखो,पति-पत्नी का रिश्ता संकल्प का रिश्ता ही होता है न- उन्होंने मुझे समझाने वाले अंदाज में कहा।
जब दो लोग परिवार और समाज को साक्षी बना कर एक दूसरे को पति और पत्नी स्वीकार करने का संकल्प लेते हैं,उसी को तो शादी करना कहते हैं।
मैंने और ऋषभ ने भी सगाई में एक दूसरे को अँगूठी पहना कर मन ही मन में पति-पत्नी स्वीकार किया ही था
इसलिए स्वयं को विवाहिता ही मानती हूँ।
क्या हुआ जो सशरीर वो मेरे साथ नहीं रहते हैं पर मन में तो वही हैं और हमेशा रहेंगे- कहते हुए भावुक हो गयीं
आपको आधुनिक मीरा कहूँ तो गलत नहीं होगा-मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया।
तभी मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी और बात में व्यवधान आ गया।
देखा तो सौरभ का फोन था
आज जल्दी घर आ गए थे और घर बंद देख कर फोन किया था
मैंने जल्दी से दीदी को घर आने का निमंत्रण दिया और एक साथ पूजा करने का अनुरोध करके अपने घर भागी।
सौरभ फ्रेश होने गए और मैं उनके लिए चाय बनाते हुए बेसब्री से इस अनोखी कहानी को उनसे साझा करने का इंतज़ार करने लगी।
आज चाय के साथ पकौड़ी की जगह कहानी ही परोस दिया।
कहानी सुनने के बाद लंबी गहरी साँस छोड़ते हुए सौरभ ने कहा- अभी तुम पूजा की तैयारी करो ।
बहुत जल्द इस अधूरी कहानी को पूरी करने का प्रयास करेंगे।
आप कैसे पूरी करवा सकते हैं-मैंने हैरत से पूछा।
सब बताऊंगा,पहले तुम पूजा की तैयारी करो चाँद बस निकलने वाला ही होगा- कहते हुए उन्होंने मुझसे पीछा छुड़ाया
परिस्थितियां कुछ ऐसी हुई कि अगले दिन ही सौरभ को ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़ा।
कहानी को पूरा करने की योजना के बारे में बात करने का मौका नहीं मिला।
दो दिन बाद शाम में जब सौरभ लौटे तब उनके साथ उनके ममेरे भाई भी थे।
चाय नाश्ता करने के बाद सौरभ ने
मुझसे कहा कि जा कर मानसी दीदी को बुला लाऊँ और उनसे कह दूँ कि आज सौरभ स्पेशल बिरयानी खिलाएंगे
मानसी दी के आने पर सौरभ ने उनसे कहा-बॉलकनी में एक सरप्राइज़ है उनके लिए और मुझे किचन में बुला लिया अपनी मदद के लिए।
मेरा मन तो मानसी दी के सरप्राइज़ के बारे में जानने में अटका था
मैंने सब्र का दामन छोड़कर सौरभ से पूछ ही लिया कि कौन सा सरप्राइज़ है जिसके बारे में मुझे भी नहीं पता
सब्जी काटते हुए उन्होंने कहा- तुमको याद है करवाचौथ वाले दिन मैंने कहा था अधूरी कहानी को मुकम्मल करने का प्रयास करुंगा।
जब तुमने मानसी दी की कहानी सुनाई थी तब मुझे पता चला कि ऋषभ भैया की जिससे शादी होने वाली थी वो लड़की मानसी दी हैं
उनको फोन करके सबकुछ बताया तब वो भी आश्चर्यचकित हुए और शर्मिंदा भी ।
सबको यही उम्मीद थी कि उस लड़की की शादी कहीं हो गयी होगी।
ऐसे जोग ले कर कोई बैठ जाएगी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था।
ऋषभ भैया ने भी अभी तक शादी नहीं की है इसलिए मुझे लगा कि शायद बात बन जाए।
आमने-सामने बैठ कर दोनों एक दूसरे को अपने मन की बात कह लें
इसलिए भैया को यहाँ बुलाया और देखो न वो भी भागे-भागे आ गए।
मानसी दी ने तो बोला था कि ऋषभ भैया का एक पैर कट गया था लेकिन इनके दोनों पैर हैं , रिश्ता तोड़ने के लिए झूठ बोला था क्या आपके मामा ने-अचानक मुझे याद आया तो मैंने अपना संदेह प्रगट किया।
सौरभ ने हँसते हुए कहा- तुम औरतें भी न बेहद शक्की होती हो,भैया की एक टाँग नकली है जयपुर फुट लगवा रखा है।
खाना तैयार होने पर उनदोनो को खाने के लिए बुलाने गयी तो देखा
दीदी ने भैया का हाथ ऐसे पकड़ रखा है जैसे किसी को भी छुड़ाने नहीं देंगी।
दोनों की आँखें भरी हुई थी।
भैया उनके आँसू पोंछते हुए कह रहे थे- मुझे तुमसे पहली नज़र में ही प्यार हो गया था पर अपनी शारीरिक अपूर्णता का बोझ तुम्हारे ऊपर डाल कर तुम्हारा जीवन ख़राब नहीं करना चाहता था इसलिए शादी से इनकार कर दिया था ।
मैं सोच रहा था कि तुम अपने जीवन की नयी शुरुआत कर चुकी होगी।
दीदी ने सिसकते हुए पूछा-,शादी के बाद अगर ऐसी दुर्घटना होती तो क्या आप मुझे तलाक दे देते या मैं आपसे तलाक ले कर दूसरी शादी कर लेती ?
शारीरिक अपूर्णता तो पूरी हो भी जाती है और सिर्फ शारीरिक पूर्णता और अपूर्णता ही महत्वपूर्ण नहीं होती है
मन का मीत न मिले तो ह्रदय भी अपूर्ण रहता है।
भैया ने कहा-
ईश्वर ने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का पूरक बनाया है
इस रहस्य को न समझना मेरी भूल थी
इसलिए अच्छा बिजनेस ,पैसा नाम सब पाकर भी अपने आपको अपूर्ण ही महसूस करता था
आज तुमसे मिलने के बाद खुद में पूर्णता का वही एहसास हो रहा है जो पहली बार मिल कर हुआ था।
मैंने उनकी बातों को बीच में ही रोक दिया नहीं तो पूरी रात गुजर जाती पर बातें ख़त्म न होतीं
खाने के टेबल पर दोनों को साथ बैठा देख कर ख़ुशी की अनुभूति हो रही थी।
क्योंकि उन दोनों की आँखों में अब कभी नहीं बिछड़ने का वादा और प्यार को पा लेने की ख़ुशी दिख रही थी

Sunday, July 17, 2016

परवरिश

शालू और श्रेया के पिता सगे भाई हैं.
एक ही घर में दोनों का जन्म हुआ.साथ पले बढे. एक ही स्कूल में शिक्षा-दीक्षा मिली. बड़े हुए कॉलेज में भी एक ही विषय से उच्च शिक्षा ली फिर दोनों सरकारी नौकर बन गए. शादी हुई और गृहस्थी अलग हुई.
दोनों के घर में पुत्रों का जन्म हुआ और एक-एक कन्या के पिता भी बने.
यहाँ तक सब कुछ सामान्य है. ऐसा लगभग प्रत्येक घर में होता ही है.
कहानी शुरू होती है शालू और श्रेया के बचपन से.
शालू और श्रेया हमउम्र हैं. बस एक साल का अंतर है दोनों की उम्र में. इसलिए एक ही कालखंड में उनका बचपन,तरुणावस्था और यौवन बीता.
शालू की परवरिश परम्परागत सोच के साथ की गयी……होश सँभालने के पहले से ही उसको समझाना शुरू कर दिया गया,तुमको ससुराल जाना है,सास-ससुर और ससुराल वालों की सेवा करनी है.
यूँ समझ लीजिए कि अप्रत्यक्ष रूप से उसके मस्तिष्क में यह बिठा दिया गया. तुम्हारे जन्म लेने का उद्देश्य शादी के बाद शुरू होगा और उसकी तैयारी अभी से शुरू हो चुकी है.
इन सबके बाद भी हर बेटी की तरह शालू भी अपने पिता की लाडली तो थी ही,भाइयों के आँख का तारा भी थी,जैसा प्रत्येक भारतीय परिवार में होता है.

इधर श्रेया की परवरिश एक संतान की तरह से हो रही थी उसके माता-पिता ने बेटी के रूप में जन्म लेने का विशेष उद्देश्य उसको नहीं बताया था. जैसे उसके भाइयों का पालन पोषण हो रहा था वैसा ही उसका भी हो रहा था नतीजा ससुराल जाने की कोई तैयारी उसको नहीं करनी पड़ रही थी.
खेल-कूद,पढाई और पढाई करके नौकरी करने को ही श्रेया अपने जीवन का उद्देश्य समझती थी.
लड़की होने के कारण लड़कियों के नैसर्गिक गुण तो थे ही अतः घरेलू काम,जैसे घर की साफ़-सफाई,साज-सज्जा खाना बनाने में भी दिलचस्पी थी और जब तब इन कामों को अपनी मर्ज़ी से करती रहती थी.

समय का पहिया अपनी गति से चलता रहा.
शालू और श्रेया शादी योग्य हो गयीं . घर वालों ने अपनी समझ से योग्य वर का चुनाव करके शादी कर दी.
शालू को विदाई के साथ डोली में जाने और अर्थी में ही ससुराल से निकलने का महामंत्र भी मिला.
श्रेया को कहा गया कि तुम अब बहु की जिम्मेदारी निभाने जा रही हो और जब भी तुमको हमारी आवश्यकता होगी हम हमेशा तुम्हारे साथ खड़े रहेंगे.

शालू की माँ अक्सर अपनी देवरानी को ताना दिया करती थीं,बेटी को सही शिक्षा नहीं देने का. उनका कहना था कि कितना भी पढ़ लिख जाए बेटी…….ससुराल जाने के बाद तो खाना बनाना और घर के काम करने की कला ही काम आनी है.
बेटी को बेटे की तरह नहीं पाला जाना चाहिए.
श्रेया की माँ उनकी बात से चिंतित हो जाती थी पर उसके पिता समझा बुझा कर उनको सामान्य कर लेते थे.
उनको अपनी परवरिश और बेटी की योग्यता पर भरोसा था कोई अनावश्यक दबाव नहीं पड़ने दिया श्रेया पर.

शादी के बाद दोनों को जीवन की नई चुनौतियों से सामना करना पड़ा.
शालू तो ससुराल की पूरी तैयारी से गयी थी पर श्रेया ने शादी से पहले तक पढाई और कैरियर से इतर कुछ सोचा ही नहीं था.

शालू के लिए घर की साफ़-सफाई,खाना बनाना,सिलाई-कढ़ाई और घर वालों की सेवा करना ही महत्वपूर्ण था. इससे ज्यादा उसने कभी नहीं सोचा. शादी हो गयी ऐसे परिवार में जहाँ बौद्धिक क्षमता को महत्त्व दिया जाता था.पति और ससुर व्यख्याता थे सास भी विदुषी थी. उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे.
इस माहौल में शालू असहज हो जाती थी जब पूरा परिवार किसी विषय पर चर्चा कर रहा होता था तब वो मूक दर्शक बनी बैठी होती या किचन में व्यस्त हो जाती.
उसके इस व्यवहार से पति के साथ सामंजस्य बिठाने में मुश्किलें आने लगी.
शालू अपने प्रत्येक काम के लिए किसी न किसी पर निर्भर रहती थी.
घर से बाहर के काम करने के लिए अकेले जाने के नाम पर उसके हाथ-पैर फूलने लगते थे…..ऐसा नहीं था कि वो कर नहीं सकती थी पर पिता और भाइयों पर निर्भर रहने के कारण उसके अंदर आत्म विश्वास की कमी थी.

श्रेया की शादी ऐसे परिवार में हुई जहाँ दो बहुएँ पहले से थी. दोनों गृहणी थीं और ये नौकरीपेशा. इसके सामने चुनौती थी दोनों के मान-सम्मान को ठेस पहुचाए बिना खुद को साबित करने की.

घर के काम की विशेषज्ञ तो थी नहीं पर उसने अपने आपको नए माहौल के अनुरूप ढालने के लिए अपनी कमियों को स्वीकार करते हुए जिठानियों से आग्रह किया कि घर के काम-काज सिखने में उसकी मदद करें.
लगन के साथ किए गए ईमानदार प्रयास के फलस्वरूप जल्दी ही उसने ससुराल के माहौल में अपने आपको स्थापित कर लिया.

फिर भी उसकी उच्च शिक्षा और नौकरी कई उपयोगिता पर गाहे-बगाहे सास प्रश्न चिन्ह लगा ही देती थीं.
आई टी सेक्टर की मंदी के दौर में उसके सॉफ्टवेयर इंजीनयर पति की नौकरी चली गयी तब छह महीनों तक उसने ही घर संभाला.
घर और बाहर के बहुत से काम वो संभाल लेती थी.
घर के पुरुष भी उसके भरोसे बहुत से काम छोड़ देते थे
जिनको वो बखूबी निभाती थी क्योंकि मायके में भी ऐसे काम किया करती थी। उसके मायके में उसके और भाइयों के काम में बँटवारा नहीं किया गया था ।

अब सास ने भी ताना देना छोड़ दिया और अपनी पोतियों को भी उच्च शिक्षा दिलाने की हिमायत करने लगीं

शालू परेशान थी क्योंकि समझ नहीं पा रही थी कि पति और सास-ससुर से बढ़ती दूरी को कैसे कम करे।
उसकी समझ के अनुसार वो सबकुछ कर रही थी जो एक आदर्श बहु को करना चाहिए फिर भी कोई खुश नहीं था।
समझ नहीं पा रही थी कि आखिर चूक कहाँ हो रही है।
अपने आपको असहाय महसूस करती थी । भाभियाँ कहीं ताना न देने लगे इसलिए मायके वालों से भी अपनी परेशानी नहीं बताना चाहती थी।
इस वजह से अवसाद में रहने लगी।

दोनों की कहानी जानने के बाद प्रश्न उठता है कि बेटी का पालन-पोषण करने का सही तरीका कौन सा था ?
शालू के माता-पिता ने लड़की को लड़की की तरह की पाला।
श्रेया के माता-पिता ने उसको एक उनमुक्त वातावरण दिया लड़के लड़की में भेद किये बिना पाला।
शालू के माता-पिता का या श्रेया के माता-पिता का ??