Monday, January 2, 2017

अपराधबोध

आज भी ऑफिस पहुँची तो रितिका के चेहरे पर वही भाव दिखे जो पिछले चार-पाँच दिनों से दिख रहा था ।
हमेशा हँसती-मुस्कुराती रहने वाली इन दिनों गुमसुम और न जाने किन ख्यालों में खोयी रहती थी ।
शुरू में तो मैंने इग्नोर किया........इंसान के मूड का कोई भरोसा नहीं होता है खासकर लड़कियों का
पर लगातार ऐसा रहने के पीछे कोई विशेष कारण होगा
मन में द्वन्द शुरू हो गया था
रितिका से उसकी परेशानी के बारे में पूछना चाहिए या नहीं.......
कभी लगता कि उसकी निजी समस्या से मेरा क्या लेना-देना.........तो कभी लगता कि बात करने से शायद उसका मन हल्का हो जाएगा..... क्या पता मैं उसकी समस्या सुलझा दूँ ।
अंत में निश्चय किया,जो हो मुझे उससे एक बार बात करनी ही चाहिए........मेरी टीम का हिस्सा है और उसके परेशान रहने का असर काम पर भी पड़ रहा ,अक्सर छोटी-छोटी गलतियाँ हो रही हैं उससे ।
लंच टाइम में मैंने उसको अपने केबिन में बुलाया और अपने साथ खाने के लिए बैठा लिया ।
खाना खाते हुए माहौल को थोड़ा हल्का बनाने के लिए कुछ जोक्स आदि सुनाती रही जिसकी प्रतिक्रिया  रितिका मेरा मान रखने के लिए एक फीकी सी मुस्कुराहट से दे रही थी ।
खाना ख़त्म करके मैं असली मुद्दे पर आई.......उससे उसकी परेशानी का कारण पूछ बैठी ।
उत्तर में एक बड़ा सा मौन और शून्य में देखती आँखें मेरे सामने था ।
उसकी हिचकिचाहट मैं समझ सकती थी ।
अपने बॉस को जबाब नहीं दूँगी कह कर मना भी नहीं कर पा रही थी और व्यक्तिगत परेशानी बताने में संकोच भी कर रही थी ।
मैंने उसको बोला - तुम भूल जाओ कि ऑफिस में हो,मैं एक शुभचिंतक के नाते तुमसे पूछ रही हूँ ।
ऑफिस की कोई प्रॉब्लम हो या घर की तुम बेझिझक मुझसे बता सकती हो ।
हम मिल कर कोई समाधान ढूंढ ही लेंगे ।
अपनी बड़ी बहन या सहेली मान कर ही शेयर कर लो और भरोसा रखो बात गुप्त ही रहेगी ।
थोड़ी हिम्मत दिखा कर उसने बोला- मेरी समस्या का कोई समाधान ही नहीं है ।
मैं बात काटते हुए बोल पड़ी- ऐसी कोई समस्या है ही नहीं जिसका कोई समाधान न हो , तुम बताओ तो पहले 
बहुत समझाने-बुझाने के बाद उसने अपना मुँह खोला
उसके बाद जो कहानी सामने आई.......उसने मेरी वर्षो की अवधारणा को तोड़ दिया ।
समाज में एक सामान्य मान्यता है.....बहु ही सास-ससुर के साथ नहीं रहना चाहती है इसलिए बुजुर्गों को अकेलेपन का सामना करना पड़ता है ।
परंतु रितिका की कहानी इसके विपरीत थी......वो अपने सास-ससुर को अपने साथ रखना चाहती थी लेकिन वो लोग नहीं रहना चाहते थे ।
उनकी इच्छा थी कि रितिका और उसके पति नौकरी छोड़ कर उनलोगों के साथ रहें ।
सास की तबियत खराब रहने लगी थी ,उनको विशेष देखभाल की आवश्यकता थी ।
ससुर भी रिटायर हो चुके थे उनसे सास की देखभाल संभव नहीं था ।
घर में और कोई था नहीं.....ननद और देवर विदेश में थे
इसलिए सबने रितिका पर दबाव बनाना शुरू किया था
उसके सास-ससुर गाँव में रहते थे.....वहाँ बच्चों की पढाई की अच्छी व्यवस्था नहीं थी ।
इधर पति-पत्नी दोनों इ एम आई के बोझ तले दबे थे ।
घर और गाड़ी का लोन तो था ही ननद की शादी में लिए गए लोन की किश्तें भी अभी चालू थीं ।
दोनों की नौकरी के सहारे घर की गाड़ी चल रही थी ।
इसलिए रितिका चाहती थी कि सास-ससुर उसके पास रहने आ जाएँ तो उनकी देखभाल भी हो जाएगी और सब कुछ सामान्य गति से चलता रहेगा ।
पर वो लोग अपना घर छोड़ कर इनके पास नहीं आना चाहते थे.....यहाँ उनको अपनी बोली,भाषा,माटी और मानुस की कमी खलती थी इसलिए अच्छा नहीं लगता था ।
ननद प्रतिदिन फोन पर भाई को लताड़ रही थी......बेटा होने का कर्तव्य नहीं निभाने की याद दिला रही थी ।
उसके अनुसार इनलोगों को माता-पिता की परवाह ही नहीं थी ।
माँ बीमार है उसको देख भाल की जरुरत है पर ये लोग यहाँ ऐश कर रहे हैं ।
वास्तिवकता उससे अलग थी.....सास के इलाज का पूरा खर्च रितिका के पति के मेडिक्लेम से हुआ था ।
देवर ने एक बार कुछ पैसे भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी ।
उसके बाद से उनलोगों की सारी जरूरतों का ख्याल ये लोग यहाँ रहते हुए भी रख रहे थे
जैसे ही रितिका के पति को समय मिलता वो छुट्टी लेकर माता-पिता से मिलने चले जाते थे ।
नियमित रूप से हर महीने पिता के एकाउंट में पैसे डाल देते थे ताकि उनको पैसों की कोई दिक्कत ना हो ।
जिस चीज की भी आवश्यकता होती थी उसको यथासंभव पूरा करते थे ।
रितिका भी कई बार उनलोगों से अनुरोध कर चुकी थी कि एक फुल टाइम मेड रख लें उसके पैसे वो दे देगी परंतु सास-ससुर को मेड के हाथ का काम पसंद नहीं आता था इसलिए नहीं रखते थे ।
उनकी बस एक ही इच्छा थी बहु आ कर रहे घर और उनकी देखभाल करे ।
बच्चों की पढाई के लिए उनकी दलील थी कि जो लोग गाँव में रह रहे हैं उनके बच्चे भी तो पढ़ ही रहे है......ये बच्चे भी पढ़ लेंगे ।
बेटा नौकरी नहीं छोड़ सकता है तो बहु कम से कम नौकरी छोड़े और साथ रहे ।
रितिका यदि नौकरी छोड़ देगी तो पति का पूरा वेतन किश्तें चुकाने में ही ख़त्म हो जाएंगी इस सच्चाई को कोई मानने को तैयार ही नहीं था ।
अब वो निश्चय नहीं कर पा रही थी कि क्या निर्णय ले......अपनी नौकरी छोड़ दे और गाँव चली जाए या जैसा चल रहा है चलने दे ।
पति अपराधबोध से ग्रस्त रहने लगे थे.....इन सबका असर इनके रिश्तों पर पड़ रहा था ।
घर में सब चिड़चिड़े हुए पड़े हैं.....पति अपना गुस्सा पत्नी पर और पत्नी अपना गुस्सा बच्चों पर निकाल रही थी.....बच्चे डरे-सहमे रहते थे,पढाई भी ठीक से नहीं कर रहे थे ।
पूरी कहानी सुन कर मुझे अपने उस कहे पर अफ़सोस हो रहा था......जो मैंने बड़े आत्मविश्वास से कहा था-ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका कोई समाधान न हो
कुछ ऐसी भी समस्याएँ होती हैं जिनका समाधान नहीं हो सकता है क्योंकि जिद का कोई समाधान नहीं होता है ।

संघर्ष गाथा


हम सब किसी न किसी ऐसे व्यक्ति को जानते ही हैं जो बहुत संघर्ष के बाद किसी ऊंचाई तक पहुँचे ।
ऐसे ही एक व्यक्ति की कहानी है यह...........
देश को स्वतंत्र हुए पाँच वर्ष पुरे होने के बाद एक किसान के घर में पाँचवी संतान के रूप में पुत्र का जन्म हुआ ।
उन दिनों चार-पाँच संतान का होना साधारण बात होती थी क्योंकि बच्चे के पालन-पोषण कोई विशेष प्रोजेक्ट नहीं हुआ करता था
संयुक्त परिवार होता था,बच्चे कैसे पल जाते थे माँ को ठीक से पता भी नहीं चलता
घर की बड़ी-बूढ़ी बच्चे की पूरी जिम्मेदारी उठा लेती थीं माँ के पास सिर्फ दूध पिलाने के लिए बच्चे को भेजा जाता था
कभी कभी दो तीन औरतों के बच्चे हम उम्र होते तो उनमें से कोई भी किसी भी बच्चे को दूध पिला देती थी
कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं पर पाँचवी संतान के पाँव देखने की फुर्सत ही किसे थी ।
पहली संतान से पिता को विशेष लगाव रहता है और सबसे छोटे से माँ को ज्यादा स्नेह मिलता है ।
समय का पहिया अपनी गति से चल रहा था.....देखते-देखते पाँच वर्ष बीत गए
तब किसी को याद आया कि छोटे बच्चे की उम्र स्कूल जाने की हो गयी है .......वसंत पँचमी के दिन स्कूल में
नामांकन हो गया ।
स्कूल जाना शुरू किए कुछ ही दिन बीते थे तब तक बुखार ने आ घेरा
उनदिनों बुखार होने का मतलब था कम से कम पंद्रह दिनों तक बुखार का प्रकोप और रोगी का खाना बंद
नतीजा होता था कि पूरी तरह ठीक होते-होते एक-डेढ़ महीने तो लगने ही होते थे ।
दवा के नाम पर कुछ घरेलू काढ़े ही दिए जाते थे या आसपास के गाँव में कोई वैद्य जी हों तो उनसे दवा ले ली जाती थी वो भी तब जब सारे घरेलू प्रयोग निष्फल हो जाए
बुखार ने दो-तीन महीने की छुट्टी करा दी और स्कूल से नियम के अनुसार नाम काट दिया गया ।
स्वस्थ होने के बाद दुबारा नामांकन हुआ छः महीने के बाद फिर से बीमारी वाली कहानी दुहराई गयी और फिर से नाम काट दिया गया ।
तीसरी बार जब पिता से नामांकन का अनुरोध किया बच्चे ने तो उन्होंने इंकार कर दिया ।
उनके अनुसार पढ़ना उस बच्चे के भाग्य में नहीं था इसलिए स्कूल जाने पर बीमार हो जाता है ।
अब उसको गाय चराने का काम करना चाहिए ।
पिता के इंकार ने बच्चे को उदास तो किया पर निराश नहीं.........उसने माँ से अपनी समस्या बताई और पढ़ने की दृढ़ इच्छा भी
थोड़े ना-नुकुर के बाद माँ को बच्चे पर दया आ गयी और अपनी बचत के पैसे दे कर नामांकन करा दिया ।
संयोग ऐसा हुआ कि उसके बाद पाँचवी तक की पढाई निर्बाध चलती रही
बच्चा कुशाग्र था और मेहनती भी और नैसर्गिक नेतृत्वकर्त्ता.......अपने गुणों के कारण छात्रों के बीच लोकप्रिय था और शिक्षकों का विश्वासपात्र ।
उनके विद्यालय में गणेश चतुर्थी की दावत होती थी जिसके लिए प्रत्येक छात्र के घर से चार आना चंदा इकठ्ठा किया जाता था ।
चंदा इकठ्ठा करने और दावत की जिम्मेदारी इस छात्र की ही थी......हर घर से चंदा तो मिल गया पर अपने ही घर से नहीं मिला क्योंकि पिता की आर्थिक स्थिति खराब थी ।
जो पैसे मिले थे उनसे सारी व्यवस्था हो गयी......निश्चित दिन पर दावत भी हुई पर उस बच्चे ने वहाँ खाना नहीं खाया क्योंकि उसने विचार किया कि इस दावत में उसका योगदान नहीं है इसलिए उसका अधिकार नहीं है ..........सिर्फ दस-ग्यारह वर्ष की अवस्था में ऐसी सोच विरले ही होते हैं ।
गाँव में पाँचवी तक की ही पढाई हुआ करती थी आगे की शिक्षा के लिए घर से बारह किलोमीटर दूर शहर में जाना पड़ता था
उनके बड़े भाई शहर में स्कूल के हॉस्टल में रह कर पढाई कर रहे थे और उनको स्कॉलरशिप भी मिलता था........बच्चे ने भी पिता से हॉस्टल में एडमिशन कराने के लिए कहा तो उन्होंने शर्त लगा दी कि स्कॉलरशिप की परीक्षा पास कर लो और उस पैसे से हॉस्टल का खर्च उठाओ......मेरे पास पैसे नहीं हैं ।
स्कॉलरशिप की परीक्षा सत्र शुरू होने के दो- तीन महीने बाद होती थी और पैसे आने में छः महीने बीत जाते थे
तब तक प्रतिदिन गाँव से ही आना-जाना करके पढाई करनी थी
गाँव से तीन किलोमीटर दूर रेलवे स्टेशन था जाड़े के मौसम में सुबह छः बजे नंगे पाँव स्टेशन जाना पड़ता था सात बजे की ट्रेन पकड़ने
कपड़े के नाम पर एक शर्ट-हाफ पैंट और ठंढ से बचने के लिए खादी का मोटा सूती चादर........नंगे पैर ओस से गीली धरती पर नंगे पाँव चलते चलते जब पैर सुन्न होने लगते तो किसी के दरवाजे पर बुझी हुई अलाव के गर्म राख में पैर घुसा कर पैर गर्म कर लेते और कुछ मिनटों बाद फिर से अपने रास्ते चल पड़ते
कभी ट्रेन लेट हो जाती या स्टेशन पहुँचने में देर हो जाती तो पैदल ही रेलवे लाइन के साथ चलते हुए बारह किलोमीटर की दूरी तय की जाती थी ।
मन में पढ़ने की लालसा इतनी थी कि उसके सामने ये सब परेशानियां महत्त्वहीन थीं ।
बस एक ही धुन सवार था कि पढ़ना है गाय नहीं चराना है......अर्जुन की तरह पूरा ध्यान मछली की आँख पर था इसलिए पिता के द्वारा किया जाने वाला भेदभाव भी निराश नहीं प्रेरित ही करता था ।
बड़े भाई जिस स्कूल में पढ़ते थे वहाँ सिर्फ आठवीं तक ही हॉस्टल की सुविधा थी उसके बाद घर से ही आना जाना करना पड़ता था ।
भाई के लिए पिता ने साइकिल खरीद दिया पर इनके लिए चप्पल भी नहीं खरीदी ।
बड़े भाई को पॉकिट मनी में एक रुपया मिलता था और इनको आठ आना
बड़े भाई तो अपने पैसे पुरे खर्च कर देते थे पर ये चार आना खर्च करते और चार आना बचा लिया करते थे
जिंदगी की खींचतान के साथ समय बीतता गया......बड़े भाई की स्कूली शिक्षा समाप्त हो गयी और उनका एडमिशन कॉलेज में हो गया ।
बड़े भाई जब बी ए अंतिम वर्ष में थे तभी दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं..... उनकी शादी हुई और सरकारी नौकरी लग गयी ।
घर वालों के मन में गरीबी दूर होने की आशा के दीप जलने लगे ।
भाभी भाग्यशाली घोषित हो गईं ........उनका विशेष ख्याल रखा जाता था क्योंकि उनके भाग्य से ही तो भैया की नौकरी लगी थी और कमाऊ पूत की पत्नी का ख्याल रखेंगे तभी तो पुत्र भी घर वालों का ख्याल रखेगा
दो वर्ष बाद इन्होंने हायर सेकेण्डरी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण कर ली तब पिता को विश्वास हुआ कि छोटा बेटा भी लायक है और ईनाम स्वरूप जिंदगी में पहली बार फुलपैंट और चप्पल ख़रीदा गया ।
इसके साथ ही उन पर नौकरी करने का दबाव पड़ने लगा.....घर की पूरी जिम्मेदारी बड़े भाई पर ही थी इसलिए वो चाहते थे कि छोटा भाई भी नौकरी करे जिससे उनका बोझ कुछ कम हो
लेकिन छोटे भाई की जिद बी ए करने की थी......घर वालों ने एक बार फिर से आगे की पढाई के लिए खर्च देने से इंकार कर दिया
इन्होंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया और उस पैसे से कॉलेज में एडमिशन लिया
मित्रों की मदद से शहर में रेलवे के एक कर्मचारी के साथ उसके क्वार्टर में रहने लगे.....मकान का भाड़ा नहीं देना पड़ता था बदले में उसके बच्चे को पढ़ा देते थे
अब समस्या खाने की थी......रोज रोज बाहर का खाना खा नहीं सकते थे और खाना बनाने आता भी नहीं था
परीक्षा सर पर थीं ......घर से कोई सहायता मिलने की उम्मीद ही नहीं थी
पर लक्ष्य स्पष्ट और निश्चय दृढ़ हो तो परिस्थिति पर विजय पान सरल होता है ।
सरकारी जमीन पर एक बेल का पेड़ फलों से लदा हुआ था.....बस वहाँ से दस-बीस फल तोड़ लाते थे
एक समय के भोजन का जुगाड़ तो उससे हो गया दूसरे समय के भोजन के लिए ईश्वर ने एक मित्र को माध्यम बना दिया
अपने घर से सौगात में चना ले कर आए थे मित्र के लिए .....बस दोपहर का भोजन चना-गुड़ बना लिया
सुबह के नाश्ते के लिए एक रुपए में ढाई किलो टमाटर खरीद लाते थे
प्रतिदिन आधा किलो टमाटर नाश्ते में खा लेते थे ।
इससे स्वास्थ्य को जो लाभ हो पर सबसे ज्यादा लाभ उनकी नज़र में समय और पैसे की बचत का था ।
पुरे सत्रह दिनों तक इसी भोजन के बल पर परीक्षा की तैयारी चलती रही
पर किसी तरह माँ को बेटे के फलाहारी दिनचर्या का समाचार मिल गया
माँ स्वयँ तो भूखी रह सकती है परन्तु अपनी संतान को भूखा नहीं देख सकती है
पिताजी से चोरी-छिपे देशी फ़ास्ट फ़ूड सत्तू और चिवड़ा किसी से भिजवा दिया ।
अब तो खाने की समस्या ही समाप्त हो गयी थी ।
पुरे मनोयोग से पढाई होने लगी ।
परीक्षा समाप्त होने के बाद  फिर से आरएसएस से संपर्क जुड़ गया.....जब हाई स्कूल में थे तब शुक्रवार को डेढ़ घंटे की छुट्टी हुआ करती थी
मुस्लिम छात्र और शिक्षक नमाज पढ़ने जाते थे....नेहरू जी का  मुस्लिम लाड़-दुलार शुरू हो चुका था ।
प्रत्येक शुक्रवार को एक लड़का स्कूल में आया करता था जो आरएसएस के बारे में बताया करता था
कभी-कभी " पांचजन्य " भी पढ़ कर सुनाया करता था ।
तभी से आरएसएस से परिचय हो गया था ।
कॉलेज में भी एक प्रोफ़ेसर थे जो संघ से जुड़े थे और कभी-कभी बौद्धिक के लिए इनको भी ले जाते थे ।
सहदेव जी नाम के एक जिला प्रचारक थे उनसे संपर्क बढ़ गया था.....संघ कार्यालय में जाने और उसके विभिन्न गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे ।
एक दिन सहदेव जी ने संघ शिक्षा वर्ग में हिस्सा लेने का प्रस्ताव दिया......इन्होंने उत्तर दिया -मेरे पास पैसे नहीं है फी भरने के लिए ।
सहदेव जी ने कहीं से उसका जुगाड़ किया और अपने साथ ले गए ।
वहाँ अंतिम दिन गुरूजी ( माननीय गोलवरकर जी ) तत्कालीन संघ प्रमुख भी उपस्थित थे ।
राज्य और केंद्र स्तर के बड़े-बड़े पदाधिकारी भी उपस्थित थे ।
भोजनावकाश के समय सहदेव जी ने बताया-"संगठन में शक्ति है" इस विषय पर पाँच मिनट बोलना है और उसके लिए पूर्वी प्रान्त से आपका चुनाव हुआ है ।
अप्रत्याशित सूचना थी.......बिना किसी तैयारी के बड़े-बड़े पदाधिकारियों के सामने बोलना था ।
आत्मविश्वास के बल पर ही तो जीवन की गाड़ी चल रही थी
एक बार फिर इस परीक्षा के लिए में शामिल हो गए।
बोलना समाप्त करके मंच से उतरते ही पदाधिकारियों की तरफ से बुलावा आ गया ।
मन में तरह-तरह के विचार आने लगे
क्यों बुलाया गया है ?
कुछ गलत तो नहीं बोल दिया.....जैसे विचार आने लगे क्योंकि मानव स्वभाव है पहले नकारात्मक विचार ही आते हैं ।
मँच पर गुरूजी के साथ दीनदयाल जी,बाला साहेब देवरस अश्विनी जी,कैलाशपति मिश्र जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष ठाकुर प्रसाद ( रविशंकर प्रसाद के पिता ) भी उपस्थित थे
अश्विनी जी उन दिनों जनसंघ के राष्ट्रीय संगठन मंत्री थे
सहदेव जी भी साथ में थे.....उन्होंने वहाँ पहुँचने पर पदाधिकारियों को बताया- तीन वर्ष का समय इन्होंने संघ को देने का वादा किया है ।
प्रान्त प्रचारक महोदय ने उनसे पूछा कि यदि आपको कोई जिम्मेदारी दी जाए तो क्या आप उसके लिए तैयार है ??
इन्होंने स्वीकृति दे दी ।
तब उनको बताया गया कि आपको जनसंघ के जिला संगठन मंत्री का प्रभार दिया जा रहा है। प्रवास के लिए महीने में 100 रुपए निर्धारित है खर्च का बिल देने पर पैसे मिल जाएंगे ।
इन्होंने आपत्ति करते हुए कहा- मैं संघ के लिए काम करना चाहता हूँ,जनसंघ तो राजनीतिक पार्टी है ।
उनकी आपत्ति का उत्तर में गुरूजी ने कहा-जनसंघ का काम भी संघ का ही काम है । आप करिए ।
गुरूजी की आज्ञा नहीं मानने का कोई प्रश्न ही नहीं था ।
यहाँ से राजनैतिक यात्रा की शुरूआत हुई ।
कार्यक्षेत्र मिला पूर्वी चम्पारण.....वही स्थान जो महात्मा गाँधी की कर्मभूमि थी ,जहाँ से निलहा आन्दोलन का आरम्भ हुआ था.....गाँधी जी के कारण चम्पारण काँग्रेस की परम्परागत सीट थी ।
वहाँ किसी और पार्टी के लिए जगह बनाना असंभव जैसा ही था फिर भी चुनौती को स्वीकार कर संगठन कार्य में लग गए।
इन्ही भाग-दौड़ में बी ए का रिजल्ट आ गया और घर वालों का दोहरा दबाव भी शुरू हो गया
नौकरी एवँ शादी का....…उस ज़माने में बीए पास कर लेना ही बहुत बड़ी योग्यता थी ।
थोड़े से प्रयास से ही नौकरी भी मिल जाती थी ।
पर जिनको कुछ करना होता है वो छोटी-छोटी उपलब्धियों को मंजिल नहीं मानते हैं......आगे बढ़ने के प्रयास में लगे रहते हैं ।
माँ के बहुत अनुरोध करने पर नौकरी के विषय में सोचना तो शुरू किया पर शादी से इंकार कर दिया ।
चाहत तो थी कि एम ए करके प्रोफेसर बनने की पर अब आगे की पढाई संभव नहीं थी क्योंकि संगठन का काम भी करना था
पेपर में दारोगा की नियुक्ति के लिए वेकैंसी देख कर अप्लाई कर दिया
उसमें शारीरिक परीक्षा भी देनी पड़ती है इसलिए सुबह दौड़ने का अभ्यास करना शुरू किया ।
अपने घर से दस किलोमीटर दूर एक गाँव में शाखा लगाना शुरू किया सुबह दौड़ते हुए वहाँ जाना दिनचर्या का भाग बन गया ।
शाखा भी प्रारम्भ हो गया और दौड़ने का अभ्यास भी होता रहा......भाग्यवश परीक्षा का केंद्र जहाँ था वहाँ उनकी मौसी रहती थीं ।
जाते समय माँ ने अपनी बहन के लिए कुछ सौगात भी साथ दे दिया......इसलिए मौसी के घर जाना अनिवार्य हो गया ।
पहले लोग होटल या धर्मशाला में रुकने के बारे में तभी सोचते थे जब उस जगह कोई परिचित या रिश्तेदार नहीं होता था ।
तब अतिथि को प्राइवेसी ख़त्म होने का कारण या अतिरिक्त खर्च बढ़ाने वाला समझने का प्रचलन भी नहीं था
बल्कि मेहमान का आना प्रसन्नता का कारण होता था....पैसे कम होते थे पर हृदय बड़े थे,प्रेम और अपनापन के पूँजी की समृद्धि रहा करती थी ।
जीवन के प्रत्येक परीक्षा की तरह इस परीक्षा में भी सफल हो गए । लिखित और शारीरिक परीक्षा में सफल होने के बाद दूसरे दिन ऑरिजिनल सर्टिफिकेट के साथ बुलाया गया ।
रात में मौसी के घर रुक गए......वहाँ मौसा जी को जब पता चला कि दारोगा की परीक्षा में सफलता प्राप्त कर के आए हैं तो बजाए खुश होने और बधाई देने के उन्होंने डाँटना शुरू कर दिया ।
उनके मौसा जी ने कहा कि तुमसे पुलिस विभाग की नौकरी नहीं हो सकती है.....तुम सिद्धान्तवादी हो,ईमानदार हो
ज्यादा दिनों तक नौकरी नहीं कर सकोगे ।
इसलिए इसको छोड़ दो और लॉ में एडमिशन लो.....तुम्हारे लायक काम यही है ।
बहुत समझा-बुझा कर कानून की पढाई करने के लिए तैयार कर ही दिया ।
जो पैसे उन्होंने बचा रखे थे उससे लॉ में एडमिशन ले लिया.....उनदिनों उनके यहाँ लॉ की पढाई इवनिंग क्लास में हुआ करती थी,जो इनके लिए अनुकूल भी था
घरवालों को जब पता चला कि बेटे ने दारोगा की हो रही नौकरी छोड़ दी और गाँव-गाँव घूम कर किसी पार्टी के लिए काम कर रहा है तो नाराज़ होना स्वभाविक ही था
अब उनकी माँ को एक दूसरी चिंता ने सताना शुरू कर दिया क्योंकि कभी बातचीत के क्रम में उन्होंने प्रचारक बनने की इच्छा जाहिर कर दी थी ।
हमारे समाज में किसी का कुँवारा रहना या निःसंतान होना बहुत बुरा माना जाता है क्योंकि वंश परम्परा को अत्यधिक महत्व दिया जाता है ।
माँ की प्राथमिकता अब बेटे की शादी हो गयी...…नौकरी करे या न करे जल्द से जल्द शादी कर दिया जाए ।
इधर बेटा देश सेवा को अपना लक्ष्य बनाए बैठा था और शादी उसको वह जँजीर लगता था जो लक्ष्य तक पहुँचने से रोकने वाला था ।
लड़की क्या तब तो लड़कों को भी शादी की तारीख की सूचना ही दी जाती थी.......इस मामले में राय-मशविरा,इच्छा-अनिक्षा जानने का कोई रिवाज़ ही नहीं था ।
इनके साथ भी यही हुआ.....शादी तय करके बता दिया गया और साथ में घर से बाहर जाने पर पहरा भी लगा दिया गया क्योंकि भागने का अंदेशा तो था ही ।
ये मन ही मन भागने के मौके की तलाश में थे जो मिल नहीं रहा था......अपनी पढाई पूरी करने के बाद युवा मन अपने आपको बहुत समझदार समझने लगता है
क्योंकि बहुत सी नई जानकारियाँ उसके पास होती हैं पर जीवन के व्यवहारिक पक्ष का ज्ञान कम होता है जिसको वो मानता नहीं है ।
वो भी युवा थे और उस समय सिर्फ अपने विषय में सोच रहे थे, उस लड़की के विषय में एक बार भी नहीं सोचा जो बिना किसी अपराध के अपराधिनी बना दी जाती यदि शादी नहीं होती ।
जिस काम को हम करने की ठान लेते हैं उसके लिए परिस्थितियाँ भी ढूँढ ही लेते हैं ।
ठीक शादी वाले दिन ही परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि बाजार से कुछ आवश्यक सामान लाने वाला कोई नहीं था इसलिए दूल्हे को ही भेजना पड़ा ।
ऐसे ही किसी अवसर की प्रतीक्षा में तो थे.......इनके साथ कुछ बच्चे भी गए थे ।
बच्चों को सामान के साथ घर भेज दिया और स्वयं ट्रेन में बैठ गए ।
प्लान था कि जबतक घरवालों को गायब होने का पता चलेगा तब तक गोरखपुर पहुँच चुके रहेंगे और फिर कोई ढूँढ नहीं सकेगा ।
पर प्रारब्ध ज्यादा प्रबल होता है जिसके आगे हमारी नहीं चलती है ।
ट्रेन उनके गाँव से हो कर ही गुजरती थी इसलिए ही इन्होंने उस ट्रेन को ही चुना था ताकि लोग उस ट्रेन में खोजने की सोचें भी नहीं ।
जब ट्रेन उनके गाँव के स्टेशन पर पहुँची तब सावधानी बरतते हुए ट्रेन के टॉयलेट में छुप गए और ट्रेन चलने के बाद बाहर आए......पर सामने जो दिखा उसकी तो कल्पना भी नहीं थी ।
उनके बड़े बहनोई सामने वाले सीट पर बैठे हुए थे ।
इनको देखते ही झट से उन्होंने पकड़ लिया.......ससुराल की शादी कैंसिल हो जाने की उम्मीद के कारण वो अपने किसी रिश्तेदार के घर जाने के लिए ट्रेन में बैठ गए थे
न बहनोई साहब को उनके मिलने की उम्मीद थी ना ही इनको ऐसा कुछ होने की
प्रारब्ध में शादी होना लिखा था तो भागने से भी कोई लाभ नहीं हुआ ।
शादी तो हो गयी पर पत्नी से साफ-साफ अपना लक्ष्य बता दिया.....पत्नी भी ऐसी मिली जिन्होंने तन,मन और धन से उनका हमेशा साथ दिया........कभी राह में रोड़ा नहीं बनीं
कैसी भी परिस्थितियाँ रही हों कोई शिकायत नहीं किया
ऐसा समय भी आया जब दो-दो दिन बिना खाए रहना पड़ा,एक साड़ी पर महीनों निकाल दिए ।
साड़ी पहन कर पेटीकोट और ब्लाउज साफ करके सुखाती थीं और जब पेटीकोट सूख जाता तब उसको पहन कर साड़ी धोती थीं ।
लॉ फाइनल इयर का फॉर्म भरने के लिए पैसे नहीं थे तब अपने गहने दे दिए जिसको बन्धक रख कर किताबें खरीदीं और फी जमा किया
शादी करके घर वाले निश्चिन्त हो गए......अब लड़का सन्यास तो नहीं ही लेगा
वंश चलने की गारण्टी मिल गयी थी ।
पर इनके सर पर पार्टी की जिम्मेदारी थी जिसको पूरा करने के लिए दिन-रात की मेहनत चाहिए थी ।
पत्नी को घरवालों के हवाले कर अपने मिशन में जुट गए ।
गाँव-गाँव घुम कर जनसंघ से लोगों को जोड़ने का काम करना था साथ ही साथ हर पोलिंग बूथ के लिए एजेंट भी बनाने थे और उम्मीदवार भी ढूँढना था ।
सात-आठ महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होने वाले थे और बंजर जमीन पर दीपक का उजाला फैलाना था । "दीपक " जनसंघ का चुनाव चिन्ह हुआ करता था ।
दो सालों की मेहनत रंग लाई.....चम्पारण में जनसंघ के उम्मीदवारों ने काँग्रेस को अच्छी टक्कर दी
पहली बार जनसंघ को दो सीटें भी मिली........जहाँ कोई नाम भी नहीं जानता था वहाँ से दो सीट जितना उपलब्धि ही थी ।
चंद्रिका यादव और मोहनलाल मोदी विजयी हुए ,
ओमकार नाथ जालान एवं गौरीशंकर पाण्डेय बहुत कम वोटों से हारे ।
गौरीशंकर पाण्डेय कट्टर काँग्रेसी थे और खादी की टोपी उनकी पहचान थी.......पर जब से जनसंघ के सिद्धान्तों से सहमत हो कर जनसंघ में आए तब से सफ़ेद टोपी को भी उतार दिया ।
सिर्फ 133 वोट से चुनाव हार गए
चंद्रिका यादव ने विधायक पद को आमदनी का स्त्रोत समझ लिया और लोगों से काम कराने के बदले पैसे लेने लगे
संगठन मंत्री को  विधायक जी के कारनामों का जब पता चला...... उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष कैलाशपति मिश्र से बात की
कैलाशपति मिश्र ने कहा अश्विनी जी(प्रदेश संगठन मंत्री) से बात करें
अश्विनी जी से जब बात की तो उन्होंने कहा कि जाने दीजिए कुछ गलत कर भी रहे हैं तो......यादव होने के कारण से सम्मिलित सरकार ने बहुत प्रयास किया अपने साथ मिलाने का फिर भी वो नहीं गए हैं
ऐसे समय में उनको कुछ कहना उचित नहीं होगा
परन्तु न्यायप्रिय होने के कारण इनका कहना था कि पार्टी की तरफ से चन्द्रिका यादव पर कुछ करवाई होनी ही चाहिए ।
तर्क-वितर्क के क्रम में अश्विनी जी ने चिढ़ कर कह दिया-क्या करूँ,गोली मार दूँ क्या ?
इनका उत्तर था-हाँ राजनैतिक रूप से गोली मार ही देना चाहिए
इतना कह कर वापस आ गए और पार्टी से त्यागपत्र दे दिया ।
उनका मानना था कि जिन सिद्धान्तों के आधार पर मैंने लोगों को पार्टी से जोड़ा है यदि विधायक ही उस सिद्धान्त का पालन नहीं करेंगे
और पार्टी भी गलत काम करने वाले को संरक्षण देगी तो मैं जनता से झूठी बातें नहीं करूँगा ।
ऐसे लोगों के लिए काम भी नहीं करूँगा ।
चढ़ते सूरज को ही प्रणाम किया जाता है.......चन्द्रिका यादव जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी ना ही उनके पास कोई राजनीतिक उपलब्धि ही थी सिवाय पहली बार चुनाव जीतने के....
गौरीशंकर पाण्डेय अपने क्षेत्र के जाने-माने व्यक्ति थे सिद्धान्तवादी थे पर चुनाव हार जाने के कारण पार्टी में उनको न कोई पद दिया गया ना ही जिस सम्मान के अधिकारी थे वो सम्मान दिया गया ।
शायद यही कारण रहा कि जनसंघ के भाजपा बनने के बाद भी  पार्टी का जनाधार कमजोर ही रहा.....इक्के-दुक्के उम्मीदवार संगठन के बल पर नहीं अपनी व्यक्तिगत छवि के कारण ही जीतते रहे  राममंदिर लहर के पहले तक ।
पार्टी का काम छोड़कर अब अपनी लॉ की पढाई पर पूरा ध्यान देना शुरू किया ।
फकीरी की स्थिति तो पहले वाली ही थी आय का कोई स्त्रोत नहीं था
किसी तरह पढाई पूरी करके वकालत शुरू किया पर आमदनी कुछ खास नहीं थी.....कभी कुछ पैसे मिल जाते तो कभी-कभी दस दिनों तक एक पैसे की भी आमदनी नहीं होती
घर में बड़े भाई-भाभी की चलती थी......भाई सरकारी नौकरी में थे.......माता-पिता को आर्थिक सहयोग की उम्मीद उनसे ही रहती थी
भाभी इसका लाभ उठाती थीं.....घरवालों पर रौब दिखा कर
इनकी पत्नी की स्थिति दयनीय थी क्योंकि पति कमाते नहीं थे
कहने -सुनने में तो आता है कि माता-पिता के लिए सभी संतानें समान होती हैं
पर व्यवहारिकता कहती है कि माता-पिता भी कमाऊ संतान और बेरोजगार संतान में भेदभाव करते हैं ।
पिता ने तो बचपन से ही दोनों बेटों में भेदभाव किया था पर माँ का विशेष स्नेह इनको सदा से मिलता रहा था
वही स्नेह पत्नी को भी सास से मिलता रहा......जिठानी चाहकर भी  ज्यादति नहीं कर पाती थीं
दुर्भाग्य से सास का साथ दो-तीन वर्षों का ही रहा......उनके स्वर्गवास के बाद जिठानी खुल कर सामने आ गईं और घर में बँटवारा हो गया ।
पूरा परिवार एक साथ हो गया सिर्फ इन पति-पत्नी को अलग कर दिया गया ।
बँटवारे के बाद सिर्फ एक टोकरी अनाज और एक थाली इनलोगों को दिया गया।
यहाँ तक कि शादी में मिले बर्तनों को भी जिठानी ने अपने हिस्से में रख लिया
शून्य से शुरुआत करने जैसी स्थिति थी ...........
कहते हैं न कि जिसका कोई नहीं होता है उसका भगवान होता है ।
जिस दिन से सबने दूर कर दिया उस दिन से ही ईश्वर की कृपा से उनके सीनियर वकील ने एक केस दे दिया और प्रतिदिन पाँच रूपये भी देने लगे नियमित रूप से
पहली नियमित कमाई से बर्तन और तेल-मसाले आदि जरुरत का सामान  लाना शुरू किया
कुछ ही दिनों में गृहस्थी के लिए सभी आवश्यक व्यवस्था हो गयी तब उन्होंने खेती की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया
सुबह-शाम खेत का काम देखते दिन में कोर्ट और रात में गाँव की समस्याओं को दूर करने का प्रयास
नौजवानों की एक टोली बना ली थी जिसके जिम्मे गाँव की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी थी ।
रात में दो-दो के ग्रुप में पहरा देने का नियम था जिससे चोरी आदि की घटना नहीं हो 
छोटे-मोटे झगड़ों को आपस में ही समझा-बुझा कर निपटा देने का प्रयास भी इस टोली का काम था
कुरूतियों का विरोध करना, सामाजिक काम करना आदि भी चलता रहता था
हमेशा की तरह इस बार भी मेहनत का फल मिला खेती भी अच्छी हुई और आर्थिक स्थिति भी बेहतर हो गयी ।
तीन-चार वर्ष वकालत करने के बाद मित्रों के कहने पर यूँ ही बिना विशेष इच्छा के बीपीएससी (ज्यूडिशरी ) का फॉर्म भर दिया ....... मन में भाव तो यही था कि मैं इस परीक्षा में पास तो नहीं हो सकता हूँ पर एक बार परीक्षा दे कर देखता हूँ कि इसकी परीक्षा होती कैसी है
समयाभाव के कारण पढाई नहीं हो पाती थी और परीक्षा को ले कर बहुत गंभीर भी नहीं थे
जब परीक्षा होने में कुछ समय बाकि था तभी किसी कारणवश डेट एक महीने बढ़ने की सूचना अख़बार के माध्यम से मिली
इस खबर को देख कर इनको लगा कि अब तो समय भी मिल रहा है क्यों ना एक महीना वकालत छोड़ कर पढाई कर लूँ........तब याद आया कि अभी तक तो तैयारी के लिए किताबें भी नहीं खरीदी हैं
किताबों के लिए जितने पैसे चाहिए थे उतने नहीं थे और एक महीने काम नहीं करने पर आमदनी भी नहीं होने वाली थी तो खर्च के लिए कुछ पैसे तो चाहिए ही था
घर खर्च के लिए ज्यादा पैसों की जरुरत तो नहीं थी क्योंकि जरुरत की लगभग सारी चीजें अपने खेतों से उपजा लिया करते थे
कपड़े,साबुन,केरोसिन तेल और वो मसाले जो उनके यहाँ की मिट्टी पर नहीं उपजाया जा सकता था ,उसी को खरीदने की जरुरत रहती थी ।
उस वर्ष आलू की ऊपज अच्छी हुई थी......उसमें से अपने खाने के लिए कुछ रख कर सब बेच डाला
इतने पैसे मिल गए जिससे किताबें भी आ गईं बाकि के काम भी हो गए
इनके जो मित्र परीक्षा देने वाले थे उन सबने अलग-अलग कोचिंग ज्वाइन किया हुआ था और एक साल से तैयारी में लगे हुए थे.............इनके पास सिर्फ कुछ किताबें थी और एक महीना का समय
सामाजिक काम में सम्मिलित रहने वालों को एकांत मिलना मुश्किल होता है
पढाई के लिए एकांत आवश्यक था क्योंकि समय कम था और पढ़ना ज्यादा था ।
गन्ने के खेत के अंदर गन्ना काट कर उस जगह को साफ-सुथरा करके बैठने लायक जगह बना ली....ऐसी व्यवस्था हो गयी कि भूख-प्यास भी लगे तो गन्ना खा कर काम चल जाए ।
लिखित परीक्षा समाप्त  कर फिर से अपने पुराने दिनचर्या को शुरू कर दिया
रिजल्ट आया तो अप्रत्याशित रूप से सफल प्रतियोगियों की लिस्ट में इनका भी नाम था........पुरे बार के लोग आश्चर्यचकित थे क्योंकि एक साधारण गृहस्थ की पृष्ठभूमि वाले इस युवक के सफल होने की किसी ने कल्पना ही नहीं की थी
अब इंटरव्यू की बारी थी........एक बार फिर से समस्या मुँह खोलकर खड़ी थी
एक जोड़ी सफ़ेद शर्ट-पैंट वकालत शुरू करते समय सिलवाया था जिसकी सफेदी में अब पीलापन मिल गया था
इसके अलावा खादी का कुर्ता-पाजामा ही पहनावा था ।
जब बड़ी-बड़ी बाधाएँ पर कर लीं थी इसको पार करना कौन सा मुश्किल काम था
ईश्वर कृपा से कपड़े की समस्या भी सुलझ गयी.....इंटरव्यू के लिए जब गए तब वहाँ एक ऐसे व्यक्ति से मुलाक़ात हुई जो पिछले दो बार से लिखित परीक्षा में टॉपर लिस्ट में रहते थे पर इंटरव्यू में असफल हो जा रहे थे ।
उनसे बातचीत करके इनका आत्मविश्वास थोड़ा डगमगा गया क्योंकि उस व्यक्ति की सभी विषयों पर अच्छी पकड़ थी
ऐसा विद्वान जब असफल हो सकता है तो कोई भी असफल हो सकता है ।
लिखित परीक्षा में पास होने की प्रसन्नता में असफलता का भय भी मिश्रित हो रहा था
इंटरव्यू के दो-तीन चरण थे.......सब नया अनुभव था ।
1 अप्रैल 1974 को कोर्ट में किसी ने ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट बनने की बधाई दी.........1 अप्रैल को तो लोग मज़ाक करते ही हैं पर उस दिन बार- बार बहुत से लोगों ने एक ही मज़ाक किया 
अंत में जब उनके सीनियर ने भी बधाई दी तब यकीन करना ही पड़ा कि मज़ाक नहीं सच्चाई है ।
1 अप्रैल को ही माँ का स्वर्गवास हुआ था इसलिए 1974 के पहले तक यह तारीख मनहूस हुआ करता था
उस दिन समझ में नहीं आ रहा था कि आज प्रसन्न हुआ जाए या उदास
उपलब्धि तो इतनी बड़ी थी कि सिर्फ उनके परिवार या गाँव वाले ही नहीं आस-पास के दस-बीस गाँव के लोग भी गर्व महसूस कर रहे थे ।
इसके पहले उस इलाके से कोई भी इस पद पर नहीं पहुँचा था
अफ़सोस इतना था कि इस उपलब्धि को देखने के लिए माता-पिता जीवित नहीं थे
पिता जीवित रहते तो देखते कि जिसको पढ़ने लायक भी नहीं समझा था उसने आज कुल का नाम रौशन कर दिया तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी
माँ जीवित रहतीं तो गर्व से कहतीं कि मेरा लाडला कुछ बड़ा करेगा इसका भरोसा मुझे हमेशा से था
गाँव में एक बुजुर्ग नानी थीं उनको  भी पता चला कि कोई नौकरी हो गयी है......प्रणाम करने पर आशीर्वाद देते हुए कहा-भगवान तुमको खूब तरक्की दें.....दारोगा बनाएं 😊
नानी के ज़माने में तो हवालदार भी बहुत बड़ा ऑफिसर हुआ करता था इसलिए अपनी जानकारी के अधिकतम ऊँचे पद पर जाने का आशीर्वाद दिया ।
कुछ दिनों में पोस्टिंग का आर्डर भी आ गया......ड्यूटी ज्वाइन करने के साथ ही धमाके करने शुरू कर दिए
सिद्धान्तवाद,न्यायप्रियता ईमानदारी आदि गुणों के साथ तो जन्म ही लिया था......अब उस पर चलने की चुनौती थी ।
ईमानदार ही निडर होता है और बेईमान डरपोक
पहली पोस्टिंग बिहार के गोपालगंज में हुई 
उस समय गोपालगंज सबडिवीजन हुआ था और सिवान जिला मुख्यालय था
पहला साल प्रोबेशन का होता है जिसमें मजिस्ट्रेट से लेकर जज तक के साथ ट्रेनिंग होता है
उसके बाद अलग से अपना चेम्बर,कोर्ट रूम और केस फ़ाइल मिलता है
जब गोपालगंज पहुँचे तब पता चला कि यह न कोई होटल है ना ही कोई धर्मशाला जहाँ ठहरा जा सके
रविवार का दिन था इसलिए कोर्ट भी बंद था फिर भी वहाँ से कुछ सूचना मिल पाएगा.....ऐसा सोच कर कोर्ट पहुँचे
चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था
घूमते-घूमते एक कोर्ट रूम में एक क्लर्क काम करता मिला.....उससे बात करके इतना इंतजाम हो गया कि रात में उस टेबल पर ही सो जाएँगे
घर से खाना साथ ले कर आए थे वही खा कर टेबल पर चादर बिछा कर बैग को तकिया बना कर सोने का प्रयास किया
पर मच्छरों की सेना के आक्रमण ने नींद को भागने पर मजबूर कर दिया
युद्ध चलता रहा कभी मच्छर जीतते तो कभी नींद.......इस रस्साकशी के बीच अचानक जोर-जोर से दरवाजा पिटने की आवाज़ सुनाई देने लगी
एक सीनियर ऑफिसर को कहीं से खबर मिली थी कि कोई जॉइन करने आया हुआ है और रहने की जगह नही मिलने के कारण कोर्ट में ही सो रहे हैं
पता चलते ही वो ढूँढते हुए आ गए थे.....बिना किसी पूर्व जान-पहचान के ही अपने घर ले गए ।
दूसरे दिन पदभार ग्रहण कर किया और कुछ ही दिनों में भाड़े पर एक घर भी मिल गया
पहला वेतन मिला 510 रुपए.....जो उस समय के लिए बहुत बड़ी रकम थी क्योंकि एक रुपए में भी बहुत कुछ मिल जाय करता था ।
25-30 रुपए में तो सोने के हल्के-फुल्के गहने भी मिल जाते थे
पहला वर्ष तो काम सीखने में ही निकल गया
अगले साल से स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू हुआ और साथ ही शुरू हुआ इनकी कठोरता और ईमानदारी की चर्चा
उसी समय एक कुख्यात क्रिमिनल का केस आया जो जेल में था.......उसकी बहन की शादी थी जिसमें शामिल होने के लिए जमानत याचिका दायर की गई थी
सबको उम्मीद थी कि बेल तो मिल ही जाएगा.......वकील साहब ने बताया कि यदि बेल नहीं मिला तो शादी टूट जाएगी.....लड़के वालों को बताया गया है कि लड़की का भाई बाहर नौकरी करता है ,शादी में ही घर आएगा
यदि जमानत नहीं देते तो एक मासूम लड़की की शादी के टूटने के जिम्मेदार होते और कुख्यात क्रिमिनल को ज़मानत देना भी उचित नहीं था
इस तर्क के साथ जमानत याचिका रद्द कर दी कि झूठ बोल कर की गई शादी का अंजाम कभी अच्छा नहीं होगा
कुछ दिनों के बाद कहीं जाने के लिए जब बस में चढ़े तो सामने वही क्रिमिनल बैठा हुआ दिखा
उसने भी इनको देखा और देखते ही अपनी सीट छोड़ कर खड़ा हो गया.....आग्रह करके अपनी सीट पर उनको बिठा कर खुद पीछे जा कर खड़ा हो गया
अगले स्टॉप पर बस से उतर गया
ऊपर के कोर्ट से उसको ज़मानत मिल गयी थी और वो अपने घर जा रहा था
उनदिनों ईमानदारी का सम्मान अपराधी भी करते थे इसलिए ज़मानत नही देने वाले को भी सम्मान मिला
पूरे कैरियर में ईमानदारी ने प्रतिष्ठा तो भरपूर दिलाया पर अर्थाभाव के कारण संघर्ष ने साथ नहीं छोड़ा
ऐसा समय भी आया जब ऑफिस यूनिफार्म का सफ़ेद शर्ट फट गया....पैसे की कमी के कारण नई शर्त नही ले सके तो बिना कॉलर के सफेद कुर्ते पर बैंड बांध कर और काला कोट पहन कर ही घर से जाते थे.....जिससे किसी को पता न चले कि शर्ट नहीं है
पर कोई भी कठिनाई ईमानदारी के पथ से डिगाने में सफल नहीं हुई
जहाँ भी इनकी पोस्टिंग होती थी.....वहाँ इनके पहुँचने के पहले ही इनके कारनामों की लिस्ट पहुँच जाया करती थी
संयोगवश इलाके के कुख्यात लोगों का केस इनके कोर्ट में ही आता था जिनमें ऐसे-ऐसे लोग भी शामिल थे जिनपर कोई हाथ रखने की हिम्मत ही नहीं करता था
क्योंकि ऊँचे रसूखदार लोगों की पहुँच हर विभाग के शीर्ष पद तक रहती है .......किसी की डिस्ट्रिक जज तक तक तो किसी की हाई कोर्ट तक
इनके सामने कानून के सिवा और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होता था फलस्वरूप शहर में इनकी चर्चा हो ही जाती थी ।
बिहार ज्युडिश्यरी के बहुत से रिकॉर्ड इनके हिस्से में आए.....सिर्फ दो साल में दो प्रमोशन मिलने का पहला वाकया भी इनके साथ हुआ था
सुप्रीम कोर्ट एक केस की मॉनिटरिंग कर रहा था जिसकी सुनवाई प्रतिदिन करनी थी और प्रतिदिन का रिपोर्ट डायरेक्ट सुप्रीम कोर्ट को भेजना होता था.....यह भी शायद एकलौता मामला था जिसमें हाई कोर्ट को साइड करके सुप्रीम कोर्ट सीधे लोअर कोर्ट से डील कर रहा था ।
धनबाद कोर्ट के 70 साल के इतिहास में पहला फाँसी की सजा सुनाने वाले जज यही रहे
बिहार में होने वाले नरसंहारों के केस में गया कोर्ट में पहला फैसला और सबसे ज्यादा लोगों को फाँसी की सज़ा देने वाले भी यही थे
बहुत जगह इनको धमकी भी मिली पर धमकियों की कभी परवाह ही नहीं कि और ना ही कभी विशेष सुरक्षा की माँग की
पैसों का लालच और भय दोनों ही बेअसर ही रहे सदा
1987 में उनके एक रिश्तेदार के माध्यम से सिर्फ एक केस में निर्णय पक्ष में देने के लिए एक करोड़ के रिश्वत की पेशकश हुई......जो यह पेशकश ले कर आए थे उन्होंने कहा-कि बुजुर्गों का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन मे लक्ष्मी एक बार जरूर आती है जो उनका सम्मान करते हैं उनपर सदा कृपा करती हैं
इन्होंने उत्तर दिया-मेरे घर लक्ष्मी हर महीने आती हैं जिनको बहुत आदर-सम्मान के साथ मैं लाता हूँ परंतु जो लक्ष्मी पिछले दरवाजे या खिड़की से चोरी-छिपे आने की कोशिश करेंगी उनका सम्मान मुझसे नहीं होगा
उनदिनों उनकी पत्नी बीमार थीं उनके ईलाज के खर्च के कारण आर्थिक तंगी बनी हुई थी
ईमानदार को भौतिक सुख कम मिलते हैं पर उनके पास आत्मिक और नैतिक बल का आभाव नहीं रहता है
सरकारी नौकरी में पद तो मिलता था पर वेतन उस पद के अनुरूप नहीं हुआ करते थे
इसलिए आर्थिक तंगी बनी ही रहती थी......बच्चों को भी बचपन से ही कम में गुजारा करने की आदत हो गयी थी ।
"सादा जीवन उच्च विचार " की नीति पर चलना तो अनुवांशिक गुण था पर ईमानदारी और रिश्वतखोरी से दूर रहने के मामले में बच्चे भी पिता से कम कट्टर नहीं थे
एक बार एक दूर के रिश्तेदार पहली बार उनके घर आए और सौगात में अपने बगीचे के आम लाए ।
बच्चे उनको पहचानते नहीं थे....पिता घर पर नहीं थे और माँ घर के काम मे व्यस्त थीं
बच्चे उन मौसा जी को बरामदे पर भी नहीं चढ़ने दे रहे थे और आम की बोरी को धक्का दे कर नीचे गिराने का भरपूर प्रयास कर रहे थे
बाहर किसी के बोलने की आवाज सुन कर माँ निकलीं तो देखा कि उनके रिश्तेदार हैं जिनकी हालात बच्चों ने खराब कर रखी है
बच्चों को डाँट पड़ीं,मौसा जी को प्रणाम करके क्षमा भी मांगना पड़ा अनजाने में की गई गलती के लिए
किसी भी अजनबी से कोई भी समान नहीं लेने की सख्त हिदायत थी ताकि बच्चों या परिवार के माध्यम से रिश्वत देने का कोई प्रयास सफ़ल नही हो
कोई ईमानदार तभी रह सकता है जब परिवार भी साथ देता है
बहुत से लोग पत्नी और बच्चों के दबाव में रिश्वत लेने लगते हैं
इनकी ईमानदारी का स्तर थोड़ा ऊँचा था इसलिए सरकार से मिलने वाली किसी सुविधा का भी नियमविरुद्ध उपयोग नही किया.....गाड़ी भी कभी परिवारवालों को व्यक्तिगत उपयोग के लिए नहीं दिया करते थे.......फोन के लिए सरकार ने जो लिमिट फिक्स की थी कभी उससे ज्यादा बिल नहीं आने दिया और यदि किसी कारणवश बिल ज्यादा हो गया तो उसका पेमेंट अपने पास से किया
बच्चों की शादी में भी अपने सिद्धान्त पर अडिग रहे.......बेटी की शादी के लिए इनकी सोच थी कि जो दहेज माँगेगा उसके घर शादी नहीं करूँगा.....बेटी को दहेज दूँगा पर अपनी मर्जी से
संयोगवश ऐसा परिवार मिल भी गया जहाँ मोलभाव नहीं किया गया और इन्होंने अपने सामर्थ्य के अनुसार दहेज दे कर बेटी की शादी की
बेटे की शादी में दहेज नहीं लेने का अटल निर्णय था......20-22 लाख तक की बोली शादी के बाजार में उनके लड़के की लगी पर पैसे की ताकत ने उनके संकल्प के ताकत से हमेशा कमजोर ही रही
रिटायरमेन्ट के बाद भी उनको परमानेंट लोक अदालत में पीठासीन पदाधिकारी का पद मिला
जहाँ उनके परफॉर्मेंस को देख कर दो बार एक्सटेंसन मिला और जब उन्होंने रिजाइन किया तब भी वकीलों ने हाई कोर्ट को  लेटर लिख कर इनके लिए स्पेशल परमिशन की माँग की
क्योंकि इनके समय मे जितना काम लोक अदालत में हुआ था उतना वहाँ कभी नहीं हुआ
इनके छोड़ने के बाद तो वहाँ काम होना ही बंद हो गया क्योंकि जिनकी नियुक्ति इनके बाद हुई उन पर भरष्टाचार के अनेक आरोप लगे जिसके कारण पद छोड़ना पड़ा
अपने आदर्श और सिद्धान्त पर अडिग रहते हुए आज वो जीवन के उत्तरार्ध में हैं
अब अपना समय साहित्य और अध्यात्म को दे रहे हैं ।
तीन काव्य-रचना कर चुके हैं और अभी एक उपन्यास लिख रहे हैं ।
उनकी पहली पुस्तक जो प्रकाशित हुई है उसका नाम है " गणिकालय "
जिसमें एक गरीब मासूम लड़की के गणिकालय पहुँचने से लेकर उसके वृद्धावस्था तक की स्थिति का चित्रण है, एक गणिका और उसके सपनों का वर्णन है
उसकी कुछ पंक्तियां हैं-------
                        देवालय     में    देव    है   बिकते ,
                        न्याय    बिकता    न्यायालय     में।
                        जन   -   जन   में   ईमान  बिकती, 
                        तन    बिकता     गणिकालय    में ।

खुदा  के   घर   में  मज़हब  बिकता ,
तीर्थों    में     बिकता    है   धर्म ।
राजनीति    में   सब   कुछ  बिकता ,
गिरजा   घर   में    बिकता    कर्म ।