Thursday, August 3, 2017

रक्षा बन्धन

सड़क पर चलते-चलते मयंक की आँखें बार-बार गीली हो जा रही है.....चुपके से आँसू पोंछ कर चोर नजरों से इधर-उधर देख लेता है......... कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा
पर अजनबियों के शहर में किसे भला फुर्सत थी उसे देखने की
पूरे वर्ष में यही एक दिन होता है जब उसको अकेला होना कष्ट देता था......जब दूसरों की कलाई राखी से सजी हुई दिखती तब अपनी सूनी कलाई बहुत दुख देती थी
हर बार रिश्ते की या मोहल्ले की ही कोई न कोई बहन राखी बाँध दिया करती थी लेकिन आज तो कोई नहीं थी........जो उसको राखी बाँधती
मयंक अपने माता-पिता की एकलौती संतान है.....बहुत लाड़-प्यार में पला-बढ़ा.....उसकी हर इच्छा को पूरा किया जाता था
जब उसने जिस चीज की फरमाइश की वो पूरी हो जाती थी.....माँ और पिताजी दोनों नौकरीपेशा थे इसलिए पैसों की तकलीफ़ नहीं थी
इसके उलट उसके मामा के तीन बच्चे थे और कमाने वाले सिर्फ मामा......वहाँ हर चीज तीनों बच्चों में बाँटी जाती थी
जब मयंक वहाँ जाता था था तब मामी चॉकलेट बिस्किट या मिठाई के चार हिस्से करके देती थी.....इसकी तो आदत अकेले ही पूरा खाने की थी इसलिए वो एक छोटा टुकड़ा लेने से इनकार कर देता था....बाद में मामी को जब पता चला तब वो एक पूरा चॉकलेट उसको देतीं और दूसरे में से तीन हिस्से करके अपने बच्चों को देतीं थीं
मयंक सोचता था,अच्छा है कि मेरा कोई भाई-बहन नहीं है वरना मुझे भी शेयर करना पड़ता
सिर्फ रक्षा बंधन वाले दिन उसको बहन की कमी महसूस होती थी......जब अपने दोस्तों को सज-धज कर राखी बंधवाने की तैयारी करते देखता तब उदास हो जाता था
उसको उदास देख कर माँ आसपास की किसी लड़की को बुला कर राखी बंधवा देती थीं
बड़ा होने लगा तब समझने लगा कि इस राखी से कलाई का सूनापन तो दूर हो जाता है पर मन का सूनापन दूर नहीं होता है
जिस प्रेम से कोई बहन अपने भाई के लिए सैकड़ों राखियों में से चुन कर एक राखी अपने भाई के लिए खरीदती है......भाई के पसँद की मिठाई लाती है.....रक्षा बन्धन की प्रतीक्षा करती है......राखी बांधने के बाद उपहार के लिए लड़ती है....वैसा भाव माँ के द्वारा बुला कर बँधवाई गयी राखी में नहीं होता है ।
ये तो महज खानापूर्ति होता है
ये सब सिर्फ एक दिन की बात होती थी इसलिए रक्षा बन्धन के दूसरे दिन से वो भी सामान्य हो जाता था
इस साल नौकरी के कारण घर से दूर था.....यहाँ माँ भी नहीं थीं जो उसकी उदासी दूर करने के लिए किसी से राखी बंधवा देतीं
मयंक सोच रहा था काश! एक बहन तो होती जो घर से दूर रहने पर भी राखी भेजती,फोन करती और उपहार के लिए लड़ाई करती...ठीक वैसे ही जैसे उसके मामा की बेटी अपने भाइयों से लड़ती है
हाँ ऐसा सम्भव तो था यदि माँ-पिताजी ने बेटे की चाहत में उसके जन्म के पहले दो कन्याओं की भ्रूण-हत्या नहीं की होती तो......दूसरी तरफ उसके मामा के यहाँ बेटी की चाहत में दूसरा बेटे का जन्म हो गया तब उन्होंने एक लड़की गोद ले ली
उनके बच्चे भाई और बहन दोनों का प्यार पा रहे हैं.....जीवन के सभी रंगों का आंनद ले रहे हैं
मयंक को भौतिक सुख तो बहुत मिला लेकिन भावनात्मक सुख की कमी हमेशा रही और पूरे जीवन रहेगी
माता-पिता के जाने के बाद उसके ऊपर कोई जिम्मेदारी या आर्थिक भार तो नहीं रहेगा पर भावनात्मक संबल देने वाला भी कोई नहीं होगा
भविष्य की भयावह कल्पना ने मन को झकझोर दिया.....परिणामस्वरूप उसने निश्चय कर लिया कि जो कमी उसके जीवन में है वो अपने बच्चों के जीवन में नहीं होने देगा
जब उसकी शादी होगी तब अपने बच्चे के साथ एक बच्चा गोद लेगा.....यदि पहले बेटी हुई तो एक लड़का गोद ले लेगा और लड़का हुआ तो एक लड़की गोद ले लेगा
घर मे बेटे और बेटी दोनों की किलकारियाँ गूँजेंगी.....भाई-बहन की नोकझोंक भी होगी....पिता के प्रति बेटी का लगाव और माँ का बेटे के लिए झुकाव भी होगा......जीवन के हर रस का स्वाद मिलेगा......ना रक्षा बंधन पर भाई की कलाई सूनी रहेगी न भाई दूज पर बहन सूनी आँखों से टिका की थाली को देखेगी

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