Saturday, April 16, 2016

रिश्ते: अपने पराए

दोपहर को ऑफिस में था तभी एक फोन आया जिसने मुझे बेचैन कर दिया । सारे काम छोड़कर सेक्रेटरी से कह कर टिकट्स बुक करवाया ।
घर फोन करके अरुणा को बताया निभा बुआ की तबियत ख़राब है जल्दी पैकिंग करके एयरपोर्ट पहुँचने का कह कर ऑफिस से निकल गया।
मन में बुरे बुरे ख्याल आ रहे थे किसी तरह उनको झटक कर खुद को संभाल रहा था। जब भी कोई मुश्किल समय आता है न जाने क्यों मन में नकारात्मक विचार ही आते हैं।
रास्ते भर अंतर्द्वन्द से लड़ते हुए घर पहुँचा ।
बुआ अंतिम साँसे गिन रही थीं।हमलोगों को देख कर उनके चेहरे पर ख़ुशी और संतोष के मिले-जुले भाव आए और एक हिचकी के साथ उन्होंने सँसार से विदा ले लिया। लोगों ने कहा उनके प्राण मेरे लिए ही अटके हुए थे।
इतनी जल्दी बुआ का साया हमारे सर से उठ जायेगा कल्पनातीत था मेरे लिए।
3 महीने बाद 60 की होने वाली थीं उस अवसर को यादगार बनाने की प्लानिंग कर रहे थे हमलोग ।अरुणा ने तैयारी भी शुरू कर दी थी लेकिन ऊपर वाले को यह मंजूर नहीं था।
उनके मरने की खबर जंगल के आग की तरह फ़ैल गयी,लोग जमा होने लगे भीड़ बढ़ती जा रही थी। शवयात्रा में लगता था पूरा शहर उमड़ आया है।पुरे इलाके में मातम सा छा गया।
वर्षों घर और शहर से दूर रहने के कारण मुझे पता ही नहीं था बुआ कितनी लोकप्रिय थीं।
वो एक ऐसी औरत थीं जो अपना कहे जाने वालों से तो दूर थीं पर पराए कहे जाने वालों की सगी थीं। जब अपनों ने नाता तोड़ लिया तो उन्होंने परायों से रिश्ता जोड़ लिया।
उनकी तेरहवीं तक मुझे यहीं रुकना था,इसलिए बच्चों को भी बुलवा लिया।।अब यहाँ का सारा भार मुझ पर ही था। मेरा शहर है यह फिर भी मेरे लिए अनजान है।पढाई और कैरियर में अपने शहर से कितना दूर चले जाते हैं हमलोग।
चाय पी लो की आवाज़ ने विचारों के भँवर से बाहर निकाला ।
अरुणा चाय ले कर आई थी।
किस सोच में डूबे हुए हो ? उसने पूछा।
बुआ के बारे में सोच रहा हूँ, मैंने चाय का कप उठाते हुए कहा।
सब कुछ इतना अप्रत्याशित हुआ कि मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ।
परेशान मत हो,जिंदगी में ऐसे क्षण आते ही हैं ।सबकुछ अपनी योजना के अनुसार कहाँ होता है। कह कर चली गई और मैं फिर से यादों के भँवर में गोते लगाने लगा।
बुआ एक योग्य डॉक्टर थीं, दूर दूर से लोग उनके पास इलाज़ के लिए आते थे।योग्यता को मधुर व्यवहार का साथ मिला और जादू हो जाता था। नर्सिंग होम में आने वाले लगभग सारे मरीज से उनके पारिवारिक रिश्ते बन जाते थे। नर्सिंग होम का सपना मेरे पापा ने देखा था,अपने छोटे से शहर बड़े हॉस्पिटल जैसी सुविधाओं वाला । दोनों ने मिल कर इसकी शुरुआत की थी बाद में बुआ ने उसमें रंग भरें ,पंख दिए और ऐसी ऊँची उड़ान भरी जिसे कोई और छू भी नहीं सका।

एक धन सम्पन्न परिवार की तीसरी संतान थीं बुआ,दो भाइयों की इकलौती बहन।बचपन लाड-प्यार में बीता लेकिन माँ का साया भी बचपन में ही छिन गया, चुलबुली ,हँसमुख और नटखट होने के कारण वो सबके आकर्षण का केंद्र रहती थी,अपनी बात किसी से भी मनवा लेने की कला जन्मजात थी।इन्ही गुणों के कारण स्कूल कॉलेज में भी लोकप्रिय थी और ताउम्र रहीं।
मेरे पापा से उनकी पहली मुलाकात कॉलेज के वाद-विवाद प्रतियोगिता में हुई थी,जहाँ इस अटूट रिश्ते का जन्म हुआ ।पापा की कोई सहोदर बहन नहीं थी बुआ ने इस कमी को पूरा किया।कभी कभी मन के रिश्ते खून के रिश्तों से ज्यादा मजबूत साबित हो जाते है अगर उसका आधार प्रेम हो न कि स्वार्थ।
दादाजी और दादी ने भी बुआ को अपनी बेटी मान लिया अब उनके दो घर थे।अपने घर से ज्यादा समय मेरे घर में बीतता था क्योंकि अपने घर में भाइयों की टोका टाकी और धौंस सहनी पड़ती थी उसके विपरीत मेरे घर में उनकी ज़िद और मनमानी को भी सर आँखों पर रखा जाता था।
पापा की शादी में भी बुआ की पूरी दखलंदाजी थी ,लड़की पसंद करने से रिसेप्शन तक की तैयारी उन्होंने ही की। जिंदगी सामान्य से चल रही थी तभी एक मोड़ आया और पिता का साया भी उनके सर से उठ गया ।यहीं से शुरू हुआ मानसिक यंत्रणा का दौर ।
पिता ने अपनी सम्पति तीनों संतान में बराबर बराबर बाँट कर वसीयत कर दी थी,भाई-भाभियों को यह बात नागवार गुजरी।
निभा डॉक्टर निभा थी पर थी तो लड़की ही उसको बराबरी का दर्जा क्यों
साम,दाम,दंड भेद जैसे भी हो वैसे सम्पति हथियाने की होड़ लग गयी दोनों भाइयों में।इससे क्षुब्ध हो कर उन्होंने अपना हिस्सा भाइयों के नाम किया और हमारे घर आ गयी।
दादी दादाजी की बेटी तो वो थीं ही सहर्ष उनको अपना लिया गया।दादा जी ने उनकी शादी कर देनी चाही पर बुआ ने इंकार कर दिया और उनकी ज़िद के आगे सबको झुकना पड़ा
जिंदगी के नए सफ़र की शुरुआत करने चल पड़ी ,पापा और बुआ ने साथ मिल कर पहले क्लीनिक शुरू किया ।धीरे -धीरे प्रैक्टिस भी जमने लगा और लोकप्रियता बढ़ने लगी।
बहुत छोटी उम्र में दुनिया के बहुत रंग उन्होंने देख लिए।घर छूट,सगे पराए हो गए।अपनों से दुःख मिला तो उन्होंने वसुधैव कुटुम्बकम् का सिद्धान्त आत्मसात् कर लिया फिर तो न जाने कितने लोगों की बहन,बुआ मौसी बेटी बन गयीं पता ही न चला,इनलोगों से उनका रक्त संबंध नहीं था पर उनकी एक पुकार पर आधी रात को भी आ जाते थे ।इनलोगों के साथ दिल का रिश्ता था ।
मैं दसवीं में था तब हॉस्पिटल के लिए जमीन देख कर लौटते समय एक दुर्घटना में मम्मी पापा की मौत हो गयी।
तब से बुआ ही मेरी सब कुछ थीं ।मेरी छोटी छोटी जरूरतों का भी उनको ख्याल रहता था ,मम्मी-पापा की कमी कभी महसूस ही नहीं होने दी। पढाई-लिखाई ,शादी सब उन्होंने ही किया।मुझे डॉक्टर बनाना चाहती थी पर मैंने इंकार कर दिया मुझे एलएलबी करना था ।मेरा एडमिशन बैंगलोर नेशनल स्कूल ऑफ़ लॉ में करवाया ।अकेले ही घर और हॉस्पिटल की देखभाल करती रही पर मेरी शादी डॉक्टर से करवा दी
मेरी जिंदगी के हर पल में उनकी यादें बसी हुई हैं,उनके बिना जिंदगी कैसी होगी कल्पना भी नहीं कर सकता ।बहुत दूर चली गयीं
बार-बार प्रश्न मन में उठ रहा है बुआ मेरी अपनी थी या उनके भाई उनके अपने थे जो उनके मरने पर भी शोक जताने भी नहीं आए
कैसे ये रिश्ते हैं जहाँ पराए अपने हो जाते हैं और अपने पराए

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