इस संसार में जितने भी जीव हैं सबको भय की अनुभूति होती है। बच्चा हो या वृद्ध ,मनुष्य हो या पशु सबको भय का अनुभव होता है।
भय होने का कारण मन की कमजोरी,अज्ञानता,कायरता या लोकलाज को समझा जाता है परन्तु जब गहराई से इस पर विचार करेंगे तब पाएंगे कि भय का मूल कारण प्रेम का आभाव है।
वैसे तो एक कहावत प्रचलित है-"भय बिन प्रेम न होय"
पर वास्तविकता तो यही है की ऐसा प्रेम एक प्रकार की स्वार्थ की भावना है न की प्रेम ,भले ही वह स्वार्थ किसी भी प्रकार का हो,किसी भी कारन से हो।
स्वाभाविक प्रेम तो बिना शर्त होता है,कुछ पाने के लिए नहीं कुछ देने के लिए होता है। पाने के लिए किया गया प्रेम लोभ है,वासना है और व्यापार है।
वास्तविक प्रेम भयरहित होता है इसलिए जिससे प्रेम होता है उससे भय हो ही नहीं सकता है। भय के बल पर प्रेम प्राप्त नहीं किया जा सकता सिर्फ घृणा ही प्राप्त की जा सकती है।
जो जिससे भयभीत होता है वह उससे कभी प्रेम नहीं कर सकता और जिससे प्रेम करता है उससे कभी भयभीत नहीं हो सकता।
हम परमात्मा से प्रेम नहीं करते हैं इसलिए भयभीत रहते हैं। जो परमात्मा से प्रेम करता है वही अभय हो सकता है और उसे फिर कभी भी,कहीं भी तथा किसी भी स्थिति में भय नहीं लगता क्योंकि परमात्मा सर्वकालिक है सर्व व्यापक है यानि हर समय हर जगह मौजूद रहता है।
Friday, December 26, 2014
भय और प्रेम
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