Wednesday, September 21, 2016

आश्रय

भैया एक डब्बा सेरेलक ला दो न
मैंने लाचार स्वर में अनुरोध किया....मेरी नजरें उम्मीद की किरण उनके चेहरे पर तलाश रही थीं।
थोड़ा चौंकते हुए भैया ने पूछा और कुछ भी चाहिए ?
मैंने ना का इशारा करते हुए धीरे से गर्दन हिला दिया ।
कैसे कहती उनसे कि जरुरत तो बहुत चीजों की है पर कहने में संकोच को रहा है ।
बेटे के मोह ने मुँह खोलने पर मजबूर कर दिया था इसलिए सेरेलक के लिए बोल दिया था ।
चार महीने हो गए थे वासु को सेरेलक खाए....जब भी सेरेलक का डब्बा उसको दिख जाता था
ला....ला....ला....की रट लगाने लगता था ।
मेरे पास पैसे ही नहीं थे कहाँ से लाती उसका पसंदीदा सेरेलक
आज भैया मिलने आए तो हिम्मत जुटा कर फरमाइश कर दी ।
वक़्त के रंग भी कैसे कैसे होते हैं ।
सिर्फ एक वर्ष पहले की ही बात है जब भैया मुझसे मिलने आए थे तब मेरे पास पैसों की कोई कमी नहीं थी
जी भर के शॉपिंग की थी और घर में सबके लिए उपहार भिजवाए थे उनके हाथों
वक़्त ने आज ऐसे दिन दिखा दिए कि दस रूपये के सामान के लिए भी दूसरों का मुँह ताकना पड़ रहा है ।
घर में कोई पूछता भी नहीं था मुझे किसी चीज की जरुरत है या नहीं और मेरा संकोची स्वभाव मुँह खोलने नहीं देता था ।
हँसता-खेलता परिवार था।
जान छिड़कने वाला पति और गोल-मटोल प्यारा सा बेटा ।
और क्या चाहिए था मुझे खुशियों के सागर में गोते लगाने के लिए ।
मैं अपनी ख़राब किस्मत को अब भूलने लगी थी तभी वज्रपात हुआ ।
मेरे पति आर्मी में गनर थे बेटा के जन्म के सात महीने बाद उनकी पोस्टिंग पठानकोट हो गयी ।
अभी एक महीने भी नहीं हुए थे उनको वहाँ गए हुए कि एक दिन आए एक फोन कॉल ने मुझे अपनी बदकिस्मती की याद दिला दी ।
मेरी दुनिया उजड़ गयी।
आतंकी हमले में पति शहीद हो गए थे ।
पति के तिरंगे में लिपटे शव और गोद में बेटे के साथ ससुराल पहुँची ।
गमगीन माहौल में मुझसे न जाने कितने कागजातों पर हस्ताक्षर करवाए गए
मुझे याद भी नहीं रहा।
कुछ दिनों के बाद जब जीवन सामान्य हुआ तब तक सब कुछ बदल चुका था।
घर एक चहारदीवारी बन गया था जहाँ मैं एक अनचाही सदस्य.......जिसकी किसी को भी आवश्यकता नहीं थी
सास की नजर में मैं उनके बेटे की मौत की जिम्मेदार थी ।
जेठ-जिठानी की नजर में सम्पति की हिस्सेदार......सिर्फ यही रिश्ता था मुझसे इनलोगों का ।
कल तक मेरा बेटा घर का वारिस था....जिसके जन्म पर दादा-दादी बहुत प्रसन्न हुए थे,मिठाइयाँ बाँटी थी ।
वही आज सिर्फ मेरा बेटा हो गया था......उसको प्यार से कोई दो घड़ी भी गोद में नहीं बिठाता था ।
इन्हीं सोचों में गुम थी तब तक भैया आ गए ।
सेरेलक का पैकेट मुझे पकड़ाते हुए उन्होंने पूछा- कुछ दिनों के लिए घर चलेगी ??
मैं तुम्हारे सास-ससुर से अनुमति ले लूँ ?
मैंने मौन सहमति दे दी ।
मायके जाने की कोई विशेष चाह तो नहीं थी परंतु यहाँ की चारदीवारियों के बाहर निकल कर खुली हवा में साँस लेना चाहती थी ।
थोड़ी देर बाद सास ने आ कर बोला कि अपना सामान बाँध लो.....मायके चली जाओ,भाई ले जाना चाहता है ।
आज्ञा मानते हुए मैंने भी सामान पैक कर लिया
घर पहुँच कर जब भैया ने कहा- लाडो सच बता तेरे साथ ससुराल में क्या हो रहा था ?
भैया की सहानुभूति और प्रेम ने मेरी भावनाओं का बाँध टूट पड़ा और मैं फूट-फूट कर रोने लगी ।
पिछले छः महीने में मेरे कान में प्यार के दो बोल नहीं गए थे
जीने का एकमात्र सहारा मेरा बेटा था जिसको देख कर जी रही थी ।
रो कर जब मन थोड़ा शान्त हुआ तब भैया से घर वालों के व्यवहार के बारे में बताया
बात करते-करते अचानक भैया ने पूछा -तुमको पेंशन के पैसे तो मिल रहे हैं न ?
मैंने चौंकते हुए उल्टा उनसे ही पूछा -कैसा पेंशन ? कैसे रूपये ?
मुझे तो नहीं मिला कुछ भी । घर में जो पैसे थे जो मैं ले कर आई थी उसके अलावा और कोई पैसे नहीं थे मेरे पास
भैया उस समय तो चुप रह गए ।
कुछ दिनों के बाद उन्होंने बताया कि हर महीने आर्मी की तरफ से पेंशन मनीऑर्डर से आ रहे थे और मेरे हस्ताक्षर से रिसीव भी किए गए हैं ।
हमारे यहाँ बहुएँ बाहरी लोगों के सामने नहीं जाती है इसलिए पोस्टमैन हस्ताक्षर वाला कागज़ घर के अंदर भेज देता था और हस्ताक्षर देख कर पैसे दे देता था ।
भैया ने जब छानबीन की तब सारा किस्सा पता चला ।
मेरी सास या जिठानी हस्ताक्षर करके पैसे ले लेती थी और मुझे पता भी नहीं रहता था।
पूरे परिवार की मिलीभगत से यह खेल चल रहा था ।
भैया ने बैंक में मेरा खाता खुलवाया और आर्मी हेड क्वार्टर में लिखा पढ़ी करके पेंशन के सीधे खाता में डिपॉजिट करवाने की व्यवस्था करा दी
और मुझसे कहा कि अब तुम यहीं रहो वहाँ जाने की जरुरत नहीं है ।
जब तक मैं हूँ तुम्हारी और तुम्हारे बेटे की जिम्मेदारी मैं उठाऊंगा ।
मैंने आगे पढ़ने की इच्छा जताई तो कॉलेज में एडमिशन भी करा दिया ।
लगा जिंदगी फिर से पटरी पर आ गयी है ।
भविष्य की तैयारी शुरू कर दी मैंने । ग्रेजुएशन पूरा करके प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने और नौकरी करने के सपनों ने जन्म ले लिया था ।
बिना उद्देश्य वाले जीवन को एक उद्देश्य मिल गया । मन में आशा का सँचार होने लगा ।
शादी के पहले मैंने बहुत मिन्नतें की थी कि मुझे आगे पढ़ने दें शादी मत करें पर पापा तो वही सुनते थे जो सौतेली माँ कहती थीं ।
उन्होंने न जाने कौन सी पट्टी पढ़ा रखी थी कि पापा को मेरी शादी करने से इतर कुछ भी समझने को तैयार ही नहीं थे ।
उस समय जो मेरी मिन्नतों से भी नहीं हुआ आज हो रहा था.......देर से ही सही मेरी इच्छा पूरी हो तो रही थी
पर तभी भैया ने अपनी पसंद से शादी कर ली और घर छोड़ अलग रहने लगे......मुझे भी अपने साथ ले आए ।
भाभी को अपने घर में मेरी उपस्थिति खटकने लगी
फिर शुरू हुआ मानसिक यातनाओं का एक और दौर ........... पिता के घर में सौतेली माँ से मेरा वजूद सहन नहीं होता था भाई के घर में भाभी से और पति के घर में सबके लिए असहनीय ही थी ।
डाल से टूटे सूखे पत्ते जैसी हालत थी मेरी... .....जिसे हवा यहाँ से वहाँ पहुँचा देती है पर कोई भी उसे अपने पास रखना नहीं चाहता है
जन्म लेने के साथ ही जिंदगी ने परीक्षा लेना शुरू कर दिया था जो समाप्त ही नहीं हो रहा है
जन्म के साल भर बाद ही माँ का निधन हो गया......मैं अबोध दादी और बुआओं की गोद में पलने लगी ।
साल भर बाद बुआ की शादी हो गई ।
दादी मुझे संभालती या नौकरी करतीं इसलिए पापा की दूसरी शादी कराने का निर्णय लिया गया ।
जब होश संभाला तब महसूस होने लगा कि मम्मी  भैया का तो ख्याल रखती हैं पर मेरी उपेक्षा करती हैं ।
दादी मेरी स्थिति समझ गयी और अपने साथ रखने लगीं
जब तक दादी जिन्दा रहीं जीवन में कोई परेशानी नहीं रही.......जब मैं ग्यारहवीं में थी तब दादी का साया भी उठ गया ।
अब सौतेली माँ ने अपनी वर्षो पुरानी खुन्नस निकालनी शुरू कर दी,जो दादी के संरक्षण के कारण वो नहीं कर पाई थीं ।
पापा ने तो पूर्ण आत्मसमर्पण ही कर रखा था उनके आगे पर भैया विद्रोह कर देते थे इसलिए उनसे ही थोड़ा डरती थीं ।
भैया हॉस्टल में रहते थे इसलिए माँ अपनी मनमानी कर पाती थीं ।
बारहवीं पास करते ही मेरी शादी करा कर मुझसे अपना पीछा छुड़ा लिया उन्होंने
शादी के बाद पापा ने भी कभी खोज खबर नहीं ली पर भैया ने मायके की कमी महसूस नहीं होने दी ।
उस भाई का बदला रूप ज्यादा दुखदाई है..........दादी के जाने के बाद भैया को ही अपना हमदर्द समझती रही पर जब हमदर्द ही दर्द देने लगे तब उसका इलाज कैसे होगा
भाभी झूठे लाँछन लगाती थीं और भैया बिना विचारे उसको सच मान कर मुझे डाँटने-फटकारने लगते ।
मैं हतप्रभ हो कर टुकुर-टुकुर उनको देखती रहती और वासु सहम कर मुझसे लिपट जाता था ।
एक दिन हद ही हो गयी जब भैया ने मुझपर हाथ उठा दिया........शरीर के चोट से ज्यादा दर्द पिता तुल्य भाई के व्यवहार और बोली ने दिए ।
अपनी बेबसी और दुर्भाग्य पर आँसू बहाने के सिवा और कुछ नहीं सूझ रहा था ।
समझ ही नहीं आ रहा था क्या करूँ ? कभी सोचती थी कि कहीं चली जाऊँ पर कहाँ जाऊँ ?
कभी सोचती बेटे को भी जहर दे दूँ और खुद भी खा लूँ और सारे दुखों का अंत कर लूँ ।
इन्ही विचारों की रस्सा कस्सी और आँसुओ के साथ रात बीत गयी
सुबह अकस्मात मामा जी आ गए......मेरा चेहरा देख कर उन्होंने कई बार मुझसे पूछा कि क्या परेशानी है पर अपने भाई की शिकायत मुझसे नहीं की गई
भैया से उन्होंने पूछा तो भाभी शिकायतों का पिटारा खोल के बैठ गयीं ।
सब सुन कर मामाजी मुझे अपने साथ ले आए ।
भैया-भाभी से कह दिया कि इसको समझा कर कुछ दिनों बाद वापस पहुँचा देंगे ।
मैं भी उस माहौल से दूर जाना चाहती ही थी इसलिए बिना ना नुकुर के उनके साथ चल पड़ी
एक बार फिर से एक नए ठिकाने की तरफ ..........एक बार फिर से अपने के पराएपन का दंश झेल कर ।
विधाता को अभी जिंदगी के कुछ और रँग दिखाने थे ।

इसी बीच सरकार की तरफ से शहीद के परिवार को दिए जाने वाले मुआवजे का चेक आया
ससुराल वालों को अचानक मेरी याद आने लगी और मुझ पर वापस आने के लिए दबाव डाला जाने लगा
मामा के सलाह पर मैं उनके साथ ही ससुराल गयी........इस बार माहौल बदला हुआ था......ऐसा लग रहा था जैसे शादी के बाद आई थी वही समय दुबारा आ गया है ।
मुझे और वासु को हाथों हाथ लिया गया.....कुछ ज्यादा ही ख्याल रखा जा रहा था।
हर तरफ से प्यार की बारिश हो रही थी ।
मैं सोच रही थी कि शायद इनलोगों को अपने पिछले व्यवहार की गलती समझ में आ गई इसलिए अभी सब अच्छे से व्यवहार कर रहे हैं ।
मन ही मन खुश हो रही थी देर से ही सही अपने पति के घर में मुझे अपना लिया गया ।
अब भटकने से मुक्ति मिल गयी.......मुझे स्थाई ठिकाना मिल गया ।
दूसरे ही दिन मुखौटा उतर गया और मेरी सोच सपने की तरह झूठी निकली
सारा प्यार पैसों के लिए था न कि मेरे लिए .........मामा साथ थे इसलिए उन्होंने ही मोर्चा संभाला
बहस में कुछ राज खुले तब पता चला मेरे पति के पी एफ के पैसे वो लोग पहले ही ले चुके हैं
मुझसे अनजाने में ही साइन करा कर उनलोगों ने पैसे ले लिए और अब इन पैसों पर नज़र गड़ाए हुए थे  ।
उनलोगों का तर्क था-पैसे हमारे लड़के का है,इसका क्या कुछ सालों में शादी कर लेगी तो हमारा तो लड़का भी गया और पैसे भी
इसलिए पैसे हमको दे दे और जहाँ रहना हो जो करना हो करे,हमलोगों का इससे कोई लेना-देना नहीं है ।
मामा जी ने कहा वासु आपके लड़के का लड़का है और उसका अधिकार ज्यादा है इन पैसों पर.......उसकी भविष्य की जरूरतें इन्ही पैसों से पूरी होगी
तब नया दाँव फेंका उनलोगों ने वासु को हम रखेंगे
एक माँ जिसके जीने की वजह ही उसका बेटा था, उसको पैसों के लालच में छिनने से भी गुरेज नहीं था ।
रिश्तों में भावना का कोई महत्त्व नहीं होता है क्या पैसा ही सब कुछ होता है.......मेरा दिमाग सुन्न हो गया था
बेटे के छीन जाने की कल्पना मात्र से मेरा शरीर निष्प्राण हुआ जा रहा था
अंत में पैसे वासु के नाम एफ डी करने पर समझौता हुआ

इस बार पैसे ससुराल वालों के हाथ नहीं लगा तो उसका गुस्सा निकालने के लिए एक नया तरीका ढूंढ़ लिया उनलोगों ने
पैतृक संपत्ति को बेचना और जिठानियों के नाम पर नयी सम्पति लेने का खेल शुरू हो गया
भविष्य में वासु यदि पैतृक सम्पति में से हिस्सा माँगे तो पैतृक सम्पति ही नहीं रहेगी फिर हिस्सा कहाँ से मिलेगा
मैं समझ नहीं पा रही थी कि वो किसको अपना शत्रु समझ रहे थे उस बच्चे को
जो उनके ही भाई का अंश था या मुझे जिसे उन्ही लोगों ने पसंद कर अपने भाकी अर्धांनी बनाया था
बेटा और भाई के नहीं रहने पर उसकी पत्नी और बच्चे की जिम्मेदारी उठाना जिन लोगों की नैतिक जिम्मेदारी थी
वही लोग हमदोनों को बेसहारा बेघर करने के हर संभव उपाय कर रहे थे ।
मुझे भी जिंदगी ने एक पाठ पढ़ा दिया कि कुछ रिश्ते-नाते नेह के बन्धन से नहीं पैसों के बन्धन से बँधे होते हैं
ससुराल से नाता टूटा, मायके से दूर हुई
मामा के सहारे जीवन पथ पर आगे बढ़ रही थी
किसी तरह ग्रेजुएशन पूरा हुआ, अब आगे क्या करूँ ?
दिन प्रतिदिन खर्च बढ़ते जा रहे थे पर पेंशन के पैसे उतने ही थे ।
बच्चे के स्कूल का फी अपनी पढाई का खर्च तो था ही इसके साथ छोटे छोटे दसियों जरूरतें सामने आ ही जाते......कितना भी मुठ्ठी दबा के खर्च करूँ पैसे कम ही पड़ रहे थे ।
अब पहली चुनौती थी आय का कोई स्त्रोत ढूँढना........सिंपल ग्रेजुएशन करके कौन सी नौकरी मिलती
कम्प्यूटर का बेसिक कोर्स किया और एक क्लीनिक में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी करने लगी ।
पर यह मेरी मंजिल नहीं थी इसलिए पत्राचार से एम बी ए करने लगी ।
बेटा भी स्कूल जाने लगा था
लग रहा था अब सब कुछ सामान्य हो जाएगा पर सब कुछ ज्यादा दिनों तक सामान्य रहना मेरे भाग्य में ही नहीं था ।
मेरे नौकरी की खबर जब भैया को पता चली तो उनका मान-सम्मान खतरे में पड़ गया ।
उनके घर की बेटी नौकरी करेगी तो समाज में क्या इज्जत रह जाती
घर की औरत,चाहे वो पत्नी हो,बेटी हो या बहू..... भूखी,बेबस,बेसहारा रहे परिवार की इज्जत को कोई खतरा नहीं होता है
लेकिन घर से बाहर निकल कर कुछ काम करने लगे तो इज्जत ख़त्म हो जाती है
इंसान की कैसी सोच है जिसमें सम्मान बेबसी और लाचारी से मरने में है...अपने पैरों पर खड़ा हो कर जीने में नहीं
रिश्तेदारों के दबाव में मैंने नौकरी छोड़ दी पर पैसों की आवश्यकता भी थी और स्वावलम्बी बनने की मेरी जिद भी ।
एक बार फिर से नई राह पर चली.....एक एन जी ओ के स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम से जुड़ी और ब्यूटी पार्लर का कोर्स कर घर के बरामदे में छोटा सा पार्लर सेट किया सिर्फ एक कुर्सी और एक मिरर के साथ
शुरुआत में लोग भरोसा नहीं करते थे ,धीरे-धीरे मेरा काम पसंद आने लगा और जगह छोटी पड़ने लगी ।
समय के साथ पार्लर बड़ा होता गया मेरी एम बी ए की पढाई भी पूरी हो गयी ।
आज शहर में मेरे पार्लर के चार ब्रांच हैं और हर्बल कॉस्मेटिक की छोटी सी फैक्टरी भी ।
बेटा एन डी ए में है...........भाभी सावन चढ़ते ही रक्षा बंधन में आने के लिए आग्रह करने लगती हैं पर मैं नहीं जाती हूँ
जिस भाई ने बहन की रक्षा करने का वचन उस समय नहीं निभाया जब मुझे जरुरत थी
उस भाई को राखी बाँधने का औचित्य ही नहीं था
मेरी सौतेली माँ अब मेरे साथ ही रहती हैं
क्योंकि बेटे-बहू से बनती नहीं है और जमाई उनको अपने साथ नहीं रखना चाहता है ।
सास पर अपनी कमाई क्यों खर्च करे वो.....सारी सम्पति तो बेटे के नाम कर दिया था उनके पति ने- ऐसा कह कर उसने उनकी जिम्मेदारी उठाने से इंकार कर दिया ।
बहुत बीमार थी.......पड़ोस की बुआ से पता चला तब मैं उनको अपने पास ले आई, ईलाज कराया ।
तब से मेरे पास ही हैं..........बेसहारा,विधवा के तकलीफ को मैं जानती हूँ इसलिए नहीं चाहती थी कि कोई औरत उस तकलीफ से गुजरे ।
"आश्रय" नाम से एक विधवा आश्रम की स्थापना भी की जहाँ विधवा एवं परित्यक्ताओं के रहने एवं उनकी रूचि और सामर्थ्य के अनुसार व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था है ।
ये औरतें भी सशक्त बनेंगी और स्वाभिमान से सर उठा कर जियेंगी ।
जीवन के थपेड़ों ने दादी की प्रिय लोकोक्ति पैसा तेरे तीन नाम- परसा, परशु और परशुराम का अर्थ व्यवहारिक रूप से समझा दिया था ।
यह थी मेरी यानि छाया की बुआ रजनी वर्मा की आत्मकथा
"आश्रय " की ट्रस्टी रजनी वर्मा की आत्मकथा को उत्सुकतावश नेट से मँगाया था पर
जब इसको पढ़ना शुरू किया तो कैसे रात बीत गयी पता ही नहीं चला ।
बहुत से रहस्यों से पर्दा भी उठ गया जैसे बुआ और पापा बात क्यों नहीं करते है.....बुआ राखी क्यों नहीं भेजती हैं ?
अभी तक मैं समझती थी कि बुआ घमण्डी हैं ,रईस हैं इसलिए अपने गरीब रिश्तेदारों से दूर रहती हैं।
आज सुबह के उगते सूरज के साथ एक संकल्प का उदय भी मेरे मन में हुआ है........मैं अपनी बुआ जैसी बनूँगी,परिस्थितियों से लडूंगी पर कभी हार नहीं मानूँगी
विश्वास दृढ़ हो गया कि परिस्थितियाँ बदलती जरूर हैं हिम्मत के साथ डट कर सामना करने की आवश्यकता होती है बस ।

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